Bharateey RajNeetik Vyavastha Ki Prakriti भारतीय राजनीतिक व्यवस्था की प्रकृति

भारतीय राजनीतिक व्यवस्था की प्रकृति



GkExams on 08-02-2019


राजनीतिक व्यवस्था एक सामाजिक संस्था है जो किसी देश के शासन से संव्यवहार करती है और लोगों से इसका संबंध प्रकट करती है। राजनितिक कुछ मूलभूत सिद्धांतों का समुच्चय है जिसके इर्द-गिर्द राजनीति और राजनीतिक संस्थान विकसित होते हैं या देश को शासित करने हेतु संगठित होते हैं। राजनीतिक व्यवस्था में ऐसे तरीके भी शामिल होते हैं जिसके अंतर्गत शासक चुने या निर्वाचित होते हैं, सरकारों का निर्माण होता है तथा राजनीतिक निर्णय लिए जाते हैं। समाज में राजनीतिक पारस्परिक विमर्श तथा निर्णय-निर्माण की संरचना एवं प्रक्रिया सभी देशों की राजनीतिक व्यवस्था में समाहित होते हैं। व्यक्ति की बहुविध जरूरतों की पूर्ति हेतु राजनीतिक व्यवस्था का निर्माण हुआ है।


संविधानवाद की अवधारणा एक ऐसी राजनीतिक व्यवस्था है जो एक संविधान के अंतर्गत शासित होती है और जो आवश्यक रूप से सीमित सरकार और कानून के शासन को प्रतिबिम्बित करती है तथा एक मध्यस्थ, कुलीतंत्रीय, निरंकुश तथा अधिनायकवादी व्यवस्था के विपरीत होती है। किसी देश का संविधान राजनीतिक व्यवस्था के आधारभूत ढांचे की स्थापना करता है जिसके द्वारा लोग शासित होते हैं। यह विभिन्न अंगों-विधानमण्डल, कार्यपालिका एवं न्यायपालिका की स्थापना के साथ-साथ उनकी शक्तियों, जिम्मेदारियों एवं उनके एक-दूसरे के साथ और लोगों के साथ संबंधों को विनियमित करती है। इसलिए संवैधानिक सरकार लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था के लिए अपरिहार्य है।


सरकार के प्रकार का वर्गीकरण एक देश की शासन व्यवस्था की शक्ति संरचना की सामान्य तस्वीर पेश करता है। विश्व में विभिन्न प्रकार की शासन व्यवस्था हैं जो एक-दूसरे से भिन्न हैं। विभिन्न प्रकार की सरकारें विभिन्न प्रकार की राजनीतिक व्यवस्था को अंगीकृत किए हुए हैं। विभिन्न प्रकार की सरकारों का अंतर्गत- एकात्मक, संघात्मक, लोकतांत्रिक, कुलीनतंत्रीय एवं अधिनायकवादी इत्यादि आती हैं। जहां एक ओर एकात्मक सरकार में सभी शक्तियां एक केंद्रीय प्राधिकारी में निहित होती हैं तथा देश की सभी स्थानीय अधीनस्थ इसके एजेंट के रूप में काम करते हैं। यूनाइटेड किंगडम, फ्रांस एवं न्यूजीलैण्ड एकात्मक शासन व्यवस्था के उदाहरण हैं। वहीं दूसरी ओर संघात्मक व्यवस्था में कठोर एवं लिखित शासन होता है। इसमें संविधान द्वारा विधायी एवं कार्यपालिका शक्तियों का स्पष्ट विभाजन विभिन्न अंगों को किया जाता है।


एक अधिनायकवादी या निरंकुश सरकार में लोगों को राजनीतिक प्रक्रिया में शामिल किए बिना तथा उनकी सहमति लिए बगैर फैसले लिए जाते हैं। अधिनायकवादी राजव्यवस्था का आधार, असहमति के प्रति असहिष्णुता एवं शासक हमेशा सही होने की अवधारणा है। एक संपूर्ण राजतांत्रिक व्यवस्था सामान्यतः वंशानुगत होती है। वर्तमान समय में कई देशों- यूनाइटेड किंगडम, स्वीडन, नार्वे, बेल्जियम, जापान, थाइलैण्ड, डेनमार्क, नीदरलैण्ड, स्पेन एवं मोनाको आदि में वंशानुगत शासक है, जो केवल संवैधानिक राष्ट्राध्यक्ष हैं जबकि वास्तविक शक्तियां जन-प्रतिनिधियों को हस्तांतरित की गयी है। हालाँकि कुछ राज्य हैं जहाँ सम्पूर्ण राजतांत्रिक व्यवस्था है और यह अधिनायकवादी शासन व्यवस्था की तरह ही होती है। इसके अतिरिक्त संसदीय शासन व्यवस्था, अध्यक्षात्मक शासन व्यवस्था, लोकतांत्रिक वुय्वस्था, अध्यक्षात्मक संसदीय व्यवस्था इत्यादि भी होती हैं।


वस्तुतः विभिन्न अवधारणाओं, राजनीतिक व्यवस्थाओं एवं विभिन्न प्रकार की सरकारों का विश्लेषण करने के पश्चात् कहा जा सकता है कि प्रत्येक देश अपनी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, सांस्कृतिक मूल्य,जनसंख्या प्रकृति, सामाजिक-आर्थिक संरचना एवं उपलब्ध प्रशासनिक प्रतिभा एवं साधनों के अंतर्गत अपनी शासन व्यवस्था की नींव रखता है। राजनीतिक व्यवस्था की सफलता देश विशेष की आवश्यकताओं की सर्वोत्तम पूर्ति पर निर्भर करती है।


भारत,राज्यों का संघ,एक प्रभुसतासंपन्न, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य है, जिसमें शासन की संसदीय व्यवस्था है। भारतीय राजव्यवस्था संविधान के संदर्भ में शासित होती है, जिसे 26 नवम्बर, 1949 को संविधान सभा द्वारा स्वीकार किया गया और 26 जनवरी, 1950 की प्रवृत्त किया गया। अमेरिका एवं ब्रिटिश राजनीतिक व्यवस्था की तरह, जो सदियों से अपने वर्तमान रूप में मौजूद है, भारतीय राजनीतिक व्यवस्था ब्रिटेन से 1947 में स्वतंत्रता प्राप्ति और 1950 में भारत के संविधान की उद्घोषणा के पश्चात् स्थापित हुई।


जनांकिकीय एवं भौगोलिक रूप से, भारत बेहद विशाल एवं विविधताओं वाला देश है। यहां शासन की संघीय व्यवस्था है। केंद्रीय सरकार के अतिरिक्त, यहां 28 राज्यों एवं सात संघ शासित प्रदेशों में सरकारें एवं प्रशासनिक व्यवस्था है। संघीय व्यवस्था के बावजूद अधिकतर शक्तियां केंद्र सरकार की सौंपी गई हैं।


भारत के संविधान में, जापान के संविधान के विपरीत, जहाँ कोई संविधान संशोधन नहीं हुआ है, अत्यधिक संविधान संशोधन किए गए हैं। अभी तक 100 संविधान संशोधन (जून 2015 तक) किए जा चुके हैं। उल्लेखनीय है कि भारत के संविधान की कई विशेषताएं हैं जैसे, लिखित एवं विशाल संविधान, संसदीय प्रभुता एवं न्यायिक सर्वोच्चता में समन्वय, संसदीय शासन प्रणाली, नम्यता एवं अनम्यता का समन्वय, विश्व के प्रमुख संविधानों का प्रभाव, ऐकिकता की ओर उन्मुख परिसंघ प्रणाली, सत्र्व्जनिक मताधिकार, धर्मनिरपेक्षता, समाजवादी राज्य, स्वतंत्र न्यायपालिका, इत्यादि।


एक राजनितिक व्यवस्था आखिरकार संस्थाओं, हित समूहों (राजनीतिक दल, व्यापार संघ, मजदूर संघ,लॉबी समूह) का सम्मुचय होती है तथा उन संस्थाओं के मध्य आयाम प्रदान करती है।


भारत में विधायिका विधि-निर्माण की सर्वोच्च संस्था है, दूसरी और कार्यपालिका को कार्यान्वयन की जिम्मेदारी सौंपी गई है और न्यायपालिका विधि प्रवर्तन एवं संविधान समीक्षा का कार्य करती है। इस प्रकार भारतीय राजनीतिक व्यवस्था में शक्ति पृथक्करण की स्पष्ट संवैधानिक व्यवस्था न होते हुए भी शक्ति पृथक्करण का सिद्धांत कार्यशील है, हालांकि इसकी अमेरिका जितनी कठोर व्यवस्था नहीं है।


शासन में जन सहभागिता बढ़ाने और बेहतर शासन के लिए लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण को पंचायती राज व्यवस्था के माध्यम से अपनाया गया है। संविधान संशोधन (78वें एवं 74वें) के माध्यम से इसे सशक्त किया गया है


बेहतर शासन एवं पारदर्शिता तथा जवाबदेही के लिए सूचना का अधिकार,मनरेगा एवं ई-शासन जैसे क्रांतिकारी अधिनियमों एवं युक्तियों की व्यवस्था की गई है।


भारत का संविधान भारत के सभी नागरिकों के लिए न्याय, स्वतंत्रता एवं समानता की वकालत एवं प्रावधान करता है। भारत का संविधान देश की सामाजिक-आर्थिक प्रगति को ध्यान में रखता है।


भारतीय राजनीतिक व्यवस्था में, राष्ट्रपति को कार्यपालिका का संवैधानिक अध्यक्ष बनाया गया है, जबकि वास्तविक कार्यकारी शक्ति प्रधानमंत्री और मंत्रिपरिषद् में है। इसी प्रकार राज्यों में राज्यपाल राष्ट्रपति का प्रतिनिधि होता है। संविधान विधायी शक्ति को संसद एवं राज्य विधानमंडलों में बांटता है। संसद को संविधान संशोधन की शक्ति दी गई है लेकिन सुप्रीम कोर्ट के अनुसार संसद संविधान के आधारिक लक्षणों में संशोधन नहीं कर सकती।


इस प्रकार भारतीय राजनीतिक व्यवस्था में शक्तियों के विभाजन एवं लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण की व्यवस्था की गई है। जो अधिकाधिक जन सहभागिता की संकल्पना को सशक्त करती है जो किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था का आधार है।


राजनीति में हिस्सा लेने का आधार धर्म नहीं है और न ही धर्म के आधार पर शासन में ही कोई भेदभाव किया जाता है। भारत में ब्रिटेन या अमेरिका की तरह द्विदलीय नहीं, वरन् बहुदलीय पद्धति है। सबसे बढ़कर भारतीय राजव्यवस्था में शासन सूत्र जनता के हाथ में है। बहुमत के आधार पर चुने हुए जनता के प्रतिनिधि सरकार चलाते हैं। भारत में राजनीतिक शक्ति पर किसी वर्ग विशेष का अधिकार नहीं है। वयस्क मताधिकार का सिद्धांत स्वीकार किया गया है और सभी लोगों को आत्मविकास के समान अवसर उपलब्ध कराए गए हैं। अतः भारत में राजनीतिक व्यवस्था खुली है।


निष्कर्षतः उदार लोकतांत्रिक शासन प्रणाली वाले देशों में शासन के अस्तित्व का आधार सार्वजानिक हित की अभिवृद्धि के लिए माना जाता है। सार्वजनिक हित की अभिवृद्धि के लिए राज्य कतिपय संस्थाओं का निर्माण करता है। इन संस्थाओं में काम करने वाले लोगों का उद्देश्य सर्वजन हिताय सवजन सुखाय च होता है। वे कर्तव्य भावना से अभिप्रेरित होकर जनता की सेवा को अपना अभीष्ट बना लेते हैं। राजकीय सेवा में कार्यरत ऐसे ही लोक सेवकों से उदार-लोकतंत्र शासन के मूल्य सुदृढ़ होते हैं। किंतु पिछली शताब्दी में राज्य और लोक प्रशासन का सभी देशों में जो विशाल ढांचा खड़ा किया गया, उसमें प्रशासन तथा नौकरशाही तो थी लेकिन गवर्नेस कहीं भी दिखाई नहीं देता।


हाल के वर्षों तक गवर्नेस कार्य सरकार का विशेषाधिकार माना जाता था, क्योंकि उसके पास संप्रभु शक्ति थी। बाद में व्यापारिक निगमों की दुनिया में भी कॉरपोरेट गवर्नेस शब्द का प्रयोग किया जाने लगा।


हमारे संविधान में वर्णित आर्थिक, सामाजिक एवं राजनितिक स्वतंत्रता एवं न्याय के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए शासन एवं सु-शासन का अत्यधिक एवं विशिष्ट उत्तरदायित्व है। भारत में प्रशासनिक सुधार के इतने सारे प्रयासों के बावजूद भी प्रशासन के बुनियादी ढांचे और कार्य करने की प्रक्रियाओं में मूलभूत अंतर नहीं आ पाया है। इसके लिए पुरातन एवं अनावश्यक घिसी-पिटी प्रक्रियाओं को बदलना होगा, नौकरशाही की मनोवृत्तियों को बदलकर उसे उद्देश्यपरक बनाना होगा तथा साथ ही समग्र एवं समावेशी प्रयत्न करने होंगे।


भारत में सु-शासन के प्रयास में सूचना क्रांति ने एक शक्तिशाली उपकरण का कार्य किया है। ज्ञातव्य है कि भारत सूचना प्रौद्योगिकी क्षमता में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है। ई-प्रशासन, ई-शिक्षा, ई-व्यापार, ई-वाणिज्य, ई-मेडिसिन आदि अन्य ऐसे कई क्षेत्र हैंजहां सूचना प्रौद्योगिकी की प्रभावशाली भूमिका में महत्वपूर्ण प्रगति देखी जा सकती है।


ई-गवर्नेस के अंतर्गत सरकारी सेवाएं एवं सूचनाएं पहुंचाने में विभिन्न इलेक्ट्रॉनिक विधियों एवं उपकरणों का प्रयोग किया जाता है। ई.प्रशासन के माध्यम से शासन को सरल, नागरिकोन्मुख, पारदर्शी, जवाबदेह एवं त्वरित बनाया जा सकता है।




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