Mrida Aparadan Rokne Ke Upay मृदा अपरदन रोकने के उपाय

मृदा अपरदन रोकने के उपाय



Pradeep Chawla on 31-10-2018


हमारे देश में भूमि कटाव की समस्या दिन प्रतिदिन गंभीर होती जा रही है| अतः जल ग्रहण व्यवस्था में भूमि संरक्षण प्रमुख कार्य होता है| इसकी उपयोगिता पर्वतीय जल संग्रहं करने से और अधिक बढ़ जाती है| जल संग्रहण क्षेत्र सामान्यतया ढलानदर होते हैं| इससे ढाल का भूमि क्षरण पर प्रयत्क्ष प्रभाव होता है| ढाल अधिक होने से बहने वाले जल का वेग अधिक हो जाता है| गिरती हुई वस्तु के नियम के अनुसार वेग, खड़े ढाल के वर्गमूल के अनुसार बदलता है| यदि भूमि का ढाल चार गुणा बढ़ जाता है तो बहते हुए जल का वेग लगभग दो गुणा हो जाता है| बहते हुए जल का वेग दो गुणा हो जाने पर जल जिक क्षरण क्षमता चार गुणा अधिक हो जाती है| इस प्रकार जल परिवहन क्षमता 32 गुणा बढ़ जाती है| यही कारण है कि ढलानदार स्थानों में भूक्षरण अधिक होता है| मृदा एंव जल संरक्षण के लिए किये गए उपायों को मुख्यतया दो भागों में बांटा जा सकता है (क) जैविक उपाय (ख) अभियन्त्रिकी उपाय|


(क) जैविक उपाय


(ख) फसलों या वनस्पतियों में सस्य क्रियाओं द्वारा भू-क्षरण को नियंत्रित करने के लिए उपयोग में लाई गई विधियाँ जैविक उपायों के नाम से जाने जाते हैं|


भू-क्षरण को नियंत्रित करने के लिए निम्नलिखित जैविक उपायों का प्रयोग किया जाता है:

  1. समोच्च जुताई (कंटूर कल्टीवेशन)
  2. पट्टीदार खेती (स्ट्रिप क्रापिंग)
  3. भू-परिष्करण प्रक्रियाएं (टिलेज प्रेक्टिसेज)
  4. वायु अवरोधक व आश्रय आवरण (विंड ब्रेक तथा शेल्टर बेल्ट)
  5. समोच्च जुताई: इसके अंतर्गत विभिन्न प्रकार के कृषि कार्य जैसे बुआई, जुताई, भूपरिष्करण, खरपतवार नियंत्रण इत्यादि समोच्च रेखा पर किये जाते हैं| अर्थात इन कार्यों की दिशा खेत के ढाल के समानांतर न होकर लम्बवत होती है जिससे भूक्षरण में कमी आती है| इसके अंतर्गत क्यारियां बनाकर (रिज फरो सिस्टम) वर्षा जल प्रवाह को कम करके भूक्षरण को रोका जाता है|
  6. पट्टीदार खेती: यह पद्धति भूमि की उर्वरता बढ़ाने तथा अप्रवाह एवं भूक्षरण रोकने हेतु प्रयोग में लाई जाती है| इसके अंतर्गत खेत में पट्टियाँ पर भूक्षरण अवरोधक फसल लगाईं जाती है| इस क्रम में पट्टियों पर फसलें उगाकर भूमिक्षरण को कम किया जाता है|
  7. भू-परिष्करण प्रक्रियाएं : सामान्यतः सख्त मृदा सतह के कारण मिट्टी में जल प्रवेश कम जो जाता है जिससे जल प्रवाह को प्रोत्साहित मिलता है| अतः हल द्वारा उचित प्रकार से की गई जुताई मिट्टी को ढीली एवं पोली करके जल प्रवेश को बढ़ाती है| मृदा की जल धारण क्षमता में भी वृद्धि होती है जिसके फलस्वरूप अप्रवाह कम होने से भूमिक्षरण भी कम होता है| वर्षा पूर्व जुताई करने पर नमी संरक्षण में लाभप्रद परिणाम मिलता है|
  8. वायु अवरोधक व आश्रय आवरण: यह वानस्पतिक उपायों के अंतर्गत आते हैं तथा मुख्यतया वायु अपरदन को कम करने में सहायक होते हैं| ये वानस्पतिक उपाय मृदा सतह के पास वायु की गति को धीमा करके वायु अपरदन कम करते हैं| वानस्पतिक या यांत्रिक वायु अवरोधक वायु वेग से प्रभावित क्षेत्र को वायु अपरदन सुरक्षा प्रदान करते हैं जबकि वायु तथा पेड़ों से बना हुआ आश्रय आवरण, वायु अवरोधक की तुलना में लम्बा होने के साथ-साथ अधिक प्रभावशाली होता है|

क) अभियांत्रिकी उपाय


मृदा सतह पर जल संरक्षण करने योग्य अभियान्त्रिकी संरचनाओं का निर्माण मृदा अपरदन को रोकने का एक प्रभावी विकल्प है जो अतिरिक्त वर्षा जल निकास में भी सक्षम होता है| इसके अतिरिक्त निम्नलिखित संरचनाएं सम्मिलित है:

  1. समोच्च बंध (कंटूर बंड)
  2. श्रेणीबद्ध बंध (ग्रेडेड बंड)
  3. वृहत आधार वाली वेदिकाएं (ब्रोड बेस टेरेसेज)
  4. सीढ़ीनुमा वेदिकाएं (बैंच टेरेसेज)
    1. समोच्च बंध: शुष्क तथा अर्धशुष्क क्षेत्रों में जहाँ अधिक रिसाव एवं जल प्रवेश की सम्भावना होती है वहां इस पद्धति का प्रयोग अत्यंत प्रभावी हो जाता है| इन क्षेत्रों में 6% ढाल होने तक समोच्च बंध प्रणाली को अपनाया जा सकता है| समोच्च बंध खेत की ढाल के लम्बवत बनाया जाता है जो खेत में नमी संरक्षण करने में आशातीत भूमिका निभाता है|
    2. श्रेणीबद्ध बंध: इस पद्धति के प्रयोग ऐसे क्षेत्रों जहाँ मिट्टी की जल रिसाव एवं जल प्रवेश क्षमता कम हो, वहाँ किया जाता है क्योंकि ऐसी परिस्थितियों में अप्रवाह जल की अधिक मात्रा होने से उसका सुरक्षित निकास आवश्यक हो जाता है| ज्ञातव्य है कि इस विधि का प्रमुख उद्देश्य खेत में नमी संरक्षण के बजाए खेत से अतिरिक्त अप्रवाह जल का सुरक्षित निकास है|
    3. वृहत आधार वाली वेदिकाएं: अपेक्षाकृत कम ढाल वाले खेतों में नमी वा संरक्षण के उद्देश्य से इन वृहत आधार वाली वेदिकाओं का निर्माण किया जाता है जो नमी संरक्षण के उद्देश्य के लिए बनाई जाती है| ये वर्षा जल के अप्रवाह को कम करते हुए भूक्षरण को कम करते रहते हैं| वृहत आकर वाली वेदिकाओं के ऊपर फसल उगाई जा सकती है जबकि बंधों के ऊपर फसल उगाना सम्भव नहीं होता|
    4. सीढ़ीनुमा वेदिकाएं: पर्वतीय क्षेत्रों में यह अधिक ढाल वाले खेतों में सामान्यतया सीढ़ीनुमा वेदिकाएं बनाकर फसलें उगाई जाती है| उन क्षेत्रों में जहाँ मृदा की पर्याप्त गहराई उपलब्ध हो वहां 6 से 50% ढाल वाली भूमि पर सीढ़ीनुमा वेदिकाएं बनाई जा सकती है|ये मुख्य रूप से तीन प्रकार की होती है|

    क) बाह्यमुखी सीढ़ीनुमा वेदिकाएं (आउटवर्ड वैंच टेरेसेज) : ये वेदिकाएं मुख्यतया कम वर्षा वाले क्षेत्रों में जहाँ की मृदा अधिक पारगम्य हो वहां बनाई जाती है, फलस्वरुप मृदा वर्षा जल को पूर्णतया सोख लेती है जिससे अप्रवाहित जल की मात्रा कम हो जाती है| अतिरिक्त वर्षा जल के सुरक्षित निकास के लिए स्वस्थ बंधों का निर्माण भी किया जाता है|


    ख) समतल सीढ़ीनुमा वेदिकाएं (लेवल वैंच टेरेसेज): माध्यम वर्षा वाले क्षेत्रों में जहाँ भूमि समतल तथा मृदा अधिक पारगम्य हो वहां इन वेदिकाओं का निर्माण किया जाता हैं| ऐसा करने से वर्षा जल वितरण सामान्य हो जाता है और अधिकांशतः वर्षा जल मृदा के अंदर प्रवेश कर जाता है जिससे वर्षा जल अप्रवाह में काफी कमी आ जाती है|


    ग) अन्तर्मुखी सीढ़ीनुमा वेदिकाएं (इनवर्ड वैंच टेरेसेज): मुख्यतया अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में इन वेदिकाओं की उपयोगिता अधिक होती है जहाँ अधिकांशतः वर्षा जल का खेत से सुरक्षित निकास आवश्यक होता है| उनमें एक उपयुक्त निकास नाली का निर्माण किया जाता है जिसे अंत में एक उपयुक्त निकासद्वार से जोड़ दिया जाता है| इन्हें पर्वतीय सीढ़ीनुमा वेदिकाओं के नाम से भी जाना जाता है|


    मृदा एंव जल संरक्षण के उपयुक्त एंव प्रभावी उपायों जैसे जैविक तथा अभियांत्रिकी का संयुक्त प्रयोग अत्यधिक लाभदायक होता है| अतः इन दोनों का एक साथ प्रयोग करने की पुरजोर सिफारिश की जाती है|




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