Khwaja Garib Nawaj History ख्वाजा गरीब नवाज हिस्ट्री

ख्वाजा गरीब नवाज हिस्ट्री



GkExams on 02-02-2019


हजरत मोईनुद्दीन चिश्ती अजमेरी जिन्हे ख्वाजा गरीब नवाज के नाम से भी जाना जाता है। ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती इस्लाम धर्म के एक ऐसे महान सूफी संत रहे है। जिन्होने इस्लाम के सुखते दरख्त को फिर से हरा भरा किया। जो गरीबो के मसीहा थे। खुद भूखे रहकर दुसरो को खाना खिलाते थे। जो दीन दुखियो के दुखो को दूर करते थे। जो पाप को पुण्य में बदल देते थे। वो अल्लाह के सच्चे बंदे थे। अल्लाह ने उन्हे उन्हे रूहानी व गअबी ताकते बख्शी थी। जिनके मानने वालो की एक विशाल संख्या जिनको इस्लाम धर्म के लोग ही नही हिन्दू सिख आदि अन्य सभी धर्मो के लोग मानते है। जिनके मानने वालो में राजा से लेकर रंक नेता से लेकर अभिनेता तक है जो ख्वाजा गरीब नवाज की जियारत के लिए हमेशा लयलित रहते है। जिनकी दरगाह आज भी हिन्दुस्तान की सरजमी को रोशन कर रही है। आज के अपने इस लेख में हम इसी महान सूफी संत ख्वाजा गरीब नवाज की जीवनी के बारे में विस्तार से जानेगें। और उनके जीवन से जुडे हर पहलू की बारीकी के साथ समझने की कोशीश करेंगें।


ख्वाजा गरीब नवाज के माता पिता कौन थे

हजरत मोईनुद्दीन चिश्ती के माता पिता कौन थे


हजरत मोईनुद्दीन चिश्ती के वालिद (पिता) का नाम हजरत ख्वाजा ग्यासुद्दीन था। और वालिदा (माता) का नाम बीबी उम्मुल वरअ था। कहा जाता है कि ख्वाजा के माता पिता का खानदानी नसबनामा हजरत अली के से जाकर मिलता है। जिससे यह साबित होता है कि ख्वाजा गरीब नवाज हजरत अली की नस्ल में से थे। हांलाकि कुछ विद्वान लोगो का मत है कि ख्वाजा की माता (वालिदा) का नाम माहनूर खासुल मलिका था। जो दाऊद बिन अब्दुल्लाह अल-हम्बली की बेटी (पुत्री) थी। इस्लामी विद्वानो में ख्वाजा की वालिदा को लेकर अलग अलग मत से यह साफ जाहिर होता है। कि ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती की वालिदा असल में कौन थी? यह स्पष्ट नही है।


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इस रूहानी रास्ते पर निकलने के बाद ख्वाजा ने फिर पिछे मुडकर नही देखा। ख्वाजा इल्म व तालीम हासिल करते हुए समरकंद, बुखारा, बगदाद, इराक, अरब, शाम, आदि का सफर तय करते हुए 1157 में ख्वाजा हारून पहुचें। जहा ख्वाजा ने उसमान हारूनी से बेअत व खिलाफत पाई।


ख्वाजा गरीब नवाज का अजमेर आना

हजरत ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती अजमेर में पहली बार 1190 में आये थे। इस समय अजमेर पर राजा पृथ्वीराज चौहान का शासन था। जब हजरत गरीब नवाज अपने साथियो के साथ अजमेर पहुंचे तो ख्वाजा ने अजमेर शहर से बाहर एक जगह पेडो के साए के नीचे अपना ठिकाना बनाया। लेकिन राजा पृथ्वीराज के सैनिको ने ख्वाजा को वहा ठहरने नही दिया उन्होने ख्वाजा से कहा आप यहा नही बैठ सकते है। यह स्थान राजा के ऊंटो के बैठने का है। ख्वाजा गरीब नवाज को यह बात बुरी लगी। ख्वाजा ने कहा- अच्छा ऊंट बैठते है तो बैठे।


ख्वाजा गरीब नवाज जीवनी


यह कहकर ख्वाजा वहा से उठकर अपने साथियो के साथ चले गए। यहा से जाकर ख्वाजा ने अनासागर के किनारे अपना ठिकाना किया। यह जगह आज भी ख्वाजा का चिल्ला के नाम से जानी जाती है।


ऊंट रोज की तरह अपने स्थान पर आकर बैठे। लेकिन वह ऊंट ऐसे बैठे की उठाए से भी नही उठे । ऊंटो को ऊठाने का काफी प्रयत्न किया गया परंतु ऊंट वहा से उठकर न दिए। राजा के सभी नौकर परेशान हो गए। नौकरो ने इस सारी घटना की खबर राजा पृथ्वीराज को दी। राजा पृथ्वीराज यह बात सुनकर खुद हैरत में पड गए। उन्होने नौकरो को आदेश दिया कि जाओ उस फकीर से माफी मांगो। नौकर ख्वाजा के पास गए और उनसे माफी मागने लगे। ख्वाजा ने नौकरो को माफ कर दिया और कहा अच्छा जाओ ऊंट खडे हो गए है। नौकर खुशी खुशी ऊटो के पास गए। और उनकी खुशी हैरत में बदल गई जब उन्होने जाकर देखा की ऊंट खडे हुए थे। इसके बाद भी ख्वाजा की वहा अनेक करामाते हुई। और धीरे धीरे अजमेर और आस पास के क्षेत्र में ख्वाजा की प्रसिद्धि चारो ओर फैल गई। ख्वाजा से प्रभावित होकर साधूराम और अजयपाल ने इस्लाम कबूल कर लिया यह दोनो व्यक्ति अपने समाज में अहम स्थान रखते थे।


अब तक ख्वाजा अनासागर के किनारे ही ठहरे हुए थे। साधूराम और अजयपाल ने इस्लाम कबूलने के बाद ख्वाजा गरीब नवाज से विनती की– कि आपने यहा शहर शहर के बाहर जंगल में ठिकाना बनाया हुआ है। हम आपसे विनती करते है कि आप आबादी में ठहरे। ताकि आपके कदमो की बरकत से लोग फायदा उठा सके। ख्वाजा ने उन दोनो की की बात मान ली। ख्वाजा ने अपने साथी यादगार मुहम्मद को शहर में ठहरने हेतु उपयुक्त स्थान देखने के लिए भेजा। यादगार मुहम्मद ने स्थान देखकर ख्वाजा ख्वाजा को सूचित किया। फिर ख्वाजा अपने साथियो के साथ उस स्थान पर अपना ठिकाना बनाया। यहा ख्वाजा ने जमाअत खाना, इबादत खाना, मकतब बनवाया। यही वो मुकद्दस जगह है जहां आज भी खवाजा की आलिशान दरगाह है।


ख्वाजा गरीब नवाज की वफात कब हुई?

हजरत मोईनुद्दीन चिश्ती की मृत्यु कब हुई


कहा जाता है कि 21 मई 1230 को पीर के दिन (6 रजब 627 हिजरी) को इशा की नमाज के बाद ख्वाजा अपने हुजरे का दरवाजा बन्द किया। किसी को भी ख्वाजा के हुजरे में दाखिल होने की इजाजत नही थी। हुजरे के बाहर ख्वाजा के सेवक हाजिर थे। रात भर उनके कानो में तिलावते कुरान की आवाजे आती रही। रात के आखीरी हिस्से में वह आवाज बंद हो गई। सुबह फजर की नमाज का वक्त हुआ लेकिन ख्वाजा बाहर नही आए। सेवको को फिक्र हुई उन्हने ख्वाजा को अनेक आवाजे लगायी व दस्तक दी। काफी देर तक कोई प्रतिक्रिया ना मिलने पर हुजरे के दरवाजे को तोडा गया। दरवाजा तोडकर जब सेवक अंदर गए तो उन्होने देखा की ख्वाजा इस दुनिया से रूखसत हो चुके थे। तथा उनके माथे पर कुदरत के यह शब्द लिखे हुए थे– हाजा हबीबुल्लाह मा-त फ़िहुब्बुल्लाह° ।



ख्वाजा की मृत्यु अजमेर शरीफ के लिए एक दुखद घटना थी सारा शहर ख्वाजा के गम में आसू बहा रहा था। ख्वाजा के जनाने में काफी भीड थी। ख्वाजा की जनाजे की नमाज ख्वाजा के बेटे ख्वाजा फखरूद्दीन ने पढाई। और ख्वाजा को उनके हुजरे में ही दफन किया गया। और वहा ख्वाजा का मजार बनाया गया जिसकी जियारत करने के लिए आज भी ख्वाजा के चाहने वाले दुनिया भर से यहा आते है।




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