Varsha Ki Matra Kis Par Nirbhar Karti Hai वर्षा की मात्रा किस पर निर्भर करती है

वर्षा की मात्रा किस पर निर्भर करती है



Pradeep Chawla on 12-05-2019

यदि हम पृथ्वी की सतह से 35 किलोमीटर ऊपर की ओर जाएं तब हमें दिन में भी

आकाश काला दिखाई देगा। इस ऊंचाई से हमें दिन में तारे भी नज़र आ जाएंगे।

अंतरिक्षयात्रा के दौरान जब अंतरिक्षयात्री आकाश को देखते हैं तब अंतरिक्ष

में वायुमंडल की अनुपस्थिति के कारण उन्हें आकाश नीला नहीं दिखाई देता है।





धूप वाले दिनों में वायुमंडल के धूल और गैसों के कणों द्वारा सूर्य के

प्रकाशीय वर्णक्रम में उपस्थित नीले रंग का प्रकीर्णन या फैलाव अन्य रंगों

की तुलना में अधिक होता है जिसके परिणामस्वरूप हमें आकाश नीला दिखाई देता

है। अनेक बार अचानक से घने बादल छाने और बारिश होने से पिकनिक का मजा

किरकिरा हो जाता है। लेकिन सभी बादल बरसते नहीं हैं। यदि हम बादलों को

निहारें तब हमें ये बड़े मनमोहक दिखेंगे। आकाश के विशाल कैन्वस पर निरन्तर

आकृति बदलते बादलों को देखना सुखद अहसास होता है।





बादल मौसम का महत्वपूर्ण हिस्सा है। सूर्य की गर्मी से पृथ्वी की सतह के

गर्म होने पर नदियों, झीलों, और महासागरों का जल वायुमंडल में जलवाष्प रूप

में मिलता रहता है। जल से जलवाष्प बनने की यह प्रक्रिया वाष्पन कहलाती है।

गर्म हवा के जलवाष्प सहित ऊपर उठने पर बादलों का निर्माण होता है। गर्म हवा

के ऊपर उठने के साथ जलवाष्प ठंडी होने लगती है। पर्याप्त ठंडी होने पर

जलवाष्प जल की बहुत छोटी बूंदों या हिम रवों में बदल जाती है। इस प्रक्रिया

का कारण यह है कि गर्म हवा की तुलना में ठंडी हवा जलवाष्प की कम मात्रा

धारण करती है और जलवाष्प की अतिरिक्त मात्रा उसके चारों ओर के तापमान के

अनुसार जल की द्रव अवस्था या बर्फ में परिवर्तित हो जाती है। जल की ये

सूक्ष्म बूंदें अपने आसपास उपस्थित धूल के सूक्ष्म कणों, समुद्री लवणों या

हवा में तैरते प्रदूषकों पर जमा होकर बादलों का निर्माण करती है।





जल की सूक्ष्म बूंदे एक-दूसरे से टकराकर आकार में बढ़ती जाती हैं। जब जल की

ये बूंदे इतनी भारी हो जाती हैं कि हवा में स्थिर न हो सकें तब यह धरती पर

पानी या हिम के रूप में बरसती हैं। बारिश या हिमपात को वर्षण भी कहा जाता

है। वर्षा का एक भाग पृथ्वी पर नदियों, झीलों और महासागरों में जमा हो जाता

है और इस प्रकार यह चक्र एक बार फिर आरम्भ हो जाता है। बादलों के विषय में

सर्वाधिक रोचक तथ्य इनकी आकृति में बहुत अधिक विविधता का होना है। इनमें

कुछ बादल बहुत हल्के पंखों की भांति पूरे आकाश में बिखरे रहने वाले तो कुछ

कभी-कभी पूरे आकाश को ढके होने के साथ तड़ित झंझा का कारण बनने वाले भी

होते हैं। शरद ऋतु के सुहाने मौसम में बादलों से आच्छादित नीला आकाश श्वेत

रुई जैसे बादलों से भरा होता है। लेकिन कभी-कभी तड़ित झंझा और भारी बारिश

को लाने वाले ये बादल बाढ़ का कारण भी बनते हैं।





बादलों के नाम




इंसानों की भांति बादलों को भी अलग-अलग नामों से जाना जाता है। धरती से

देखने पर हमें सभी बादल एक समान ऊंचाई वाले दिखाई देते हैं। हममें से

अधिकतर बादलों की ऊंचाई के अंतर का अनुमान नहीं लगा पाते हैं। हममें से वे

लोग जिन्होंने हवाई यात्रा की है उन्हें पता होगा कि हमें दिखाई देने वाले

बादलों की ऊंचाई कम-ज्यादा होती है। अक्सर हम बादलों की आकृति और प्रकार पर

ध्यान नहीं देते हैं। यद्यपि पर्वतों पर बादल लगभग जमीनी स्तर पर होते है।

सामान्यतः हमारे द्वारा देखे जाने वाले अधिकतर बादलों की ऊंचाई 1800 मीटर

से 5500 मीटर तक होती है। लेकिन तड़ित झंझा और बारिश के लिए उत्तरदायी कुछ

बादल धरती से 15,000 मीटर ऊंचाई तक भी पहुंच जाते हैं।





मौसम वैज्ञानिक बादलों को उनकी आकृति और ऊंचाई के अनुसार विभिन्न नामों से

पहचानते हैं। बादलों को मुख्यतः तीन वर्गों पक्षाभ (सिरस), कपासी (कुमुलस)

और स्तरी (स्ट्रेटस) बादलों में बांटा गया है। इन्हें ये लैटिन नाम सन्

1804 में दिए गए थे। इनका शाब्दिक अर्थ, क्रमशः स्ट्रेटस का पर्त, कुमुलस

का ढेर और सिरस का घुँघरालें बाल है।





बादलों को धरती से आकाश में निम्न, मध्यम और अधिक ऊंचाई के आधार पर भी

वर्गीकृत किया गया है। अधिक ऊंचाई, लगभग 6,000 मीटर से अधिक, पर स्थित

बादलों के लिए ‘सिरो’ यानी ‘पक्षाभ’ उपसर्ग का उपयोग किया जाता है। सिरो का

लैटिन भाषा में शाब्दिक अर्थ ‘बालों का गुच्छा’ है। 1,800 से 6,000 मीटर

की ऊंचाई पर स्थित बादलों के नाम से आगे ‘एल्टो’ यानी ‘मध्य’ जोड़ा जाता

है, जिसका शाब्दिक अर्थ ऊंचाई है। निम्न स्तरीय बादलों के लिए कोई उपसर्ग

नहीं है। भूमि के समीप स्थित बादलों को हम कोहरा कहते हैं। वर्षा लाने वाले

बादलों के नाम के पीछे ‘निम्बस’ यानी ‘वर्षा’ शब्द लगाया जाता है।





कुछ प्रमुख बादलों के बारे में यहां जानकारी दी जा रही हैः-



• एकसमान पतली पर्तों वाले स्तरीय बादल 1,800 मीटर से नीचे स्थित होते हैं।

ये भूरे कंबल की भांति दिखाई देते हैं। भूमि सतह का कोहरा स्तरी बादल ही

है। स्तरी बादल वर्षा या हिमपात कर सकते हैं।



• कपासी बादल 1,800 मीटर से नीचे स्थित होने वाले झोंकेदार बादल हैं। आकाश

में नीचे की ओर दिखाई देने वाले इन बादलों का आधार समतल होता है।

सामान्यतया इन बादलों से मौसम के साफ रहने का अनुमान लगाया जा सकता है।

लेकिन कभी-कभी ये बादल लंबे होकर वर्षा और विद्युत झंझा का कारण बनते हैं।



• करीब 2,000 मीटर से नीचे स्थित समतल आधार व झोंकेदार शीर्ष वाले विस्तृत

बादलों को स्तरी कपासी बादल कहा जाता है। यह बादल रंगों में विविधता लिए

सफेद या भूरी चादर अथवा तहों वाले होते हैं। ये बादल कभी-कभी हल्की बारिश

भी कर सकते हैं।



• करीब 1,800 से 6,000 मीटर की ऊंचाई पर स्थित मध्यम आकार के झोंकेदार

बादलों को मध्यकपासी बादल कहते हैं। ये ढेरों छोटी रुई की गेंदों जैसे

दिखाई देते हैं। एक किलोमीटर मोटाई वाले मध्यकपासी बादल सामान्यतः समूह में

बनते हैं।



• करीब 5,500 मीटर ऊंचाई पर देखे जाने वाले झोंकेदार बादल पक्षाभ कपासी

बादल कहलाते है। अन्य सभी उच्च स्तरीय बादलों के समान पक्षाभ कपासी बादल भी

हिमकणों से बने होते हैं ये बादल बिरले ही पूरे आकाश में छाते हैं,

कभी-कभी तो इनको देख पाना आसान नहीं होता है।



• पक्षाभ बादल पतले और झुण्ड में होते हैं करीब 5,500 मीटर ऊंचाई पर स्थित

ये बादल अतिठंडी पानी की सूक्ष्म बूंदों के जमने से बने हिम कणों को रखते

हैं। ये बादल सामान्यतः साफ मौसम के सूचक होने के साथ ऊंचाई पर हवा की दिशा

बताते हैं।



• विशाल स्तंभाकार कपासी वर्षी बादल करीब 15,000 मीटर यानी 15 किलोमीटर की

ऊंचाई तक पहुंच सकते हैं। ये बादल भारी बारिश, तेज हवाओं और तड़ित घटनाओं

को उत्पन्न करने में सक्षम हैं। कपासीवर्षी बादल बौछारें, हिमपात, ओले और

विद्युत झंझा उत्पन्न करते हैं।





बादलों का रंग




नीले प्रकाश के विकिरित अणुओं की तुलना में बादलों का निर्माण करने वाली जल

की सूक्ष्म बूंदों का आकार बहुत अधिक होने के कारण आकाश के नीले होने के

बावजूद भी हमें अधिकतर बादल श्वेत रंग के दिखाई देते हैं। बादल अपने पर

आरोपित सभी रंगों के प्रकाश को परावर्तित और विकिरित करने के कारण श्वेत

रंग के दिखाई देते हैं।





बादलों का आकार बढ़ने पर उनमें उपस्थित जल की सूक्ष्म बूंदें आपस में मिलकर

वर्षा के लिए पर्याप्त बड़ी बूंदों का निर्माण करती हैं। इस प्रक्रिया के

दौरान सूक्ष्म जल बूंदों के मध्य की खाली जगह के भी विस्तारित होने के कारण

सूर्य से आता प्रकाश बादलों को अधिक भेद सकता है। यदि बादल बहुत विशाल है

तब उसमें प्रवेश करने वाले प्रकाश का कम भाग ही परावर्तित होता है। इस

प्रकाश के अवशोषण से बादल हल्का या गहरे भूरे रंग का दिखाई देता है। इस

प्रकार के गहरे भूरे रंग के बादलों को देख कर हम बारिश या हिमपात होने का

अनुमान लगा सकते हैं।





हम अक्सर लाल, नारंगी और गुलाबी रंगों के बादलों को देखते हैं। सामान्यतया

ऐसे बादल केवल सूर्योदय या सूर्यास्त के समय देखे जाते हैं। बादल स्वयं

रंग-बिरंगे नहीं होते; उनके रंग भरे होने का कारण वायुमंडल में उपस्थित धूल

और गैस कणों द्वारा सूर्य प्रकाश का प्रकीर्णन करना होता है। यह प्रभाव

ठीक वैसा ही है जैसा श्वेत कागज पर लाल प्रकाश डालने पर कागज लाल रंग का

दिखाई देता है। बारिश के दिनों में हम अक्सर सूर्यास्त के ठीक बाद या पहले

लाल शीर्ष के साथ व्यापक तड़ित झंझा देखते हैं। बादलों के विषय में एक रोचक

तथ्य यह है कि सफेद या भूरे बादलों का रंग लंबे समय तक अपरिवर्तित रहता है

जबकि लाल, नारंगी और गुलाबी रंग-बिरंगे बादलों का रंग जल्दी-जल्दी बदलता

है। सूर्य के क्षैतिज में अस्त होते समय बादलों में रंग परिवर्तन होता

देखना मनमोहक दृश्य होता है।





बादलों को देख कर समय आनन्दपूर्वक काटा जा सकता है। विभिन्न प्रकार के

बादलों को देखकर एवं उन्हें पहचानकर हम अगामी कुछ घंटों या दिनों में मौसम

की स्थिति का अंदाजा लगा सकते हैं। यदि हम यह न भी कर पाएं तब भी आकाश में

बादलों की हलचल हमें आनन्द प्रदान करती है।





बादल अत्यंत ही लुभावने होते हैं तभी तो ब्रिटेन की ‘क्लाउड एप्रीशिएसन्

सोसाइटी’ का आदर्श वाक्य यह है कि ‘अपने ऊपर स्थित बादलों की अद्भुत

क्षणभंगुर सुंदरता देखो और उसके साथ जीवन जीओ’।





तड़ित और गर्जन




कपासी बादलों के ऊपर अधिक स्थायी वायुमंडल में बनने वाले बहुत विशाल और

अधिक लम्बें बादल कपासी वर्षी बादल कहलाते हैं। प्रभावी संवहन से इन बादलों

का शीर्ष आसानी से 15,000 मीटर ऊंचाई तक पहुंच सकता है। कपासी वर्षी

बादलों का निचला हिस्सा अधिक ऊंचाई पर अधिकतर सूक्ष्म जल बूंदों से भरा

होता है। जब तापमान शून्य डिग्री सेल्सियस से नीचे होता है तब इसमें

हिमकणों की अधिकता होती है। विद्युत् और गर्जन उत्पन्न करने वाले इन

कपासीवर्षी, बादलों को सामान्यतः गर्जन-बादल और तड़ित बादलों के नाम से

जाना जाता है। ऐसे बादलों के मध्य या बादलों एवं भूपृष्ठ के मध्य आकस्मिक

उच्च विद्युत धारा का आवेश होता है जो अक्सर गर्जना से भी जुड़ा रहता है।

विद्युत् तड़ित के आवेश वाले मार्ग की हवा के तीव्र प्रसार के साथ भारी और

गरजीली आवाज गर्जन या गड़गड़ाहट कहलाती है।





एक जटिल विद्युत् तड़ित के रास्ते की लंबाई कुछ सैंकड़ों मीटर से लेकर कई

किलोमीटर तक हो सकती है। ऐसा माना जाता है कि विद्युत् झंझा के दौरान तड़ित

की उपस्थिति हवा की लम्बवत् गति और बादलों में जल की सूक्ष्म बूंदों के

मध्य धनावेश और ऋणावेश के पृथक्करण के कारण उत्पन्न आवेश का परिणाम होती

है। अब वैज्ञानिकों ने छोटे बर्फ कणों के कारण बादलों के आवेशित होने का

प्रायोगिक प्रमाण प्रस्तुत किया है। यह बात सुनने में अविश्वसनीय लगेगी कि

छोटे हिम कणों से निकलने वाली तड़ित का वज्रपात (बिजली) रास्ते की हवा को

सूर्य की सतह से तीन गुणा गर्म कर देता है। लेकिन प्रायोगिक परीक्षणों से

यह तथ्य सत्य साबित हो चुका है।





कोहरा, वर्षा और हिम




हम जानते हैं कि जब आर्द्र हवा ऊपर उठकर ठंडी होती है तब जलवाष्प संघनित

होकर जल की सूक्ष्म बूंदें बनाती है। कभी-कभी अनुकूल परिस्थितियों में हवा

के बिना ऊपर उठे ही जलवाष्प जल की नन्हीं बूंदों में बदल जाती है तब हम इसे

कोहरा कहते हैं।





अधिक ऊंचाई पर यानी पहाड़ी क्षेत्रों में कोहरा छाना सामान्य घटना है। ऐसे

क्षेत्रों में कोहरे का बनना भूमि सतह पर बनने वाले बादलों से अलग नहीं

होता है क्योंकि आर्द्र हवा पहाड़ी ढलान पर ऊपर की ओर उठकर ठंडी और संघनित

होती है। मैदानी भागों में कोहरा अधिकतर सर्दियों के दिनों में तापमान के

ओसांक से कम होने पर बनता है। ओसांक वह तापमान है जिस पर हवा आगे और ठंडी

होने पर अतिरिक्त नमी या बिना दाब में परिवर्तन के संतृप्त हो जाती है।





मौसम वैज्ञानिकों ने कोहरे को निम्न चार प्रकारों में वर्गीकृत किया हैः

विकिरण कोहरा, अभिवहन (एडविक्शन) कोहरा, पहाड़ी कोहरा और तटीय कोहरा। कोहरे

के ये चारों प्रकार सड़क यातायात, वायु यातायात और समुद्री यातायात में

बाधा उत्पन्न कर सकते हैं। सन् 1912 में घटित ‘टाइटेनिक दुर्घटना’ कोहरे का

ही दुष्परिणाम थी।





स्वच्छ शांत रात के समय भूमि की ऊष्मा विकिरण द्वारा मुक्त होकर, ठंडी होने

पर विकिरण कोहरे का निर्माण करती है। इस प्रकार भूमि के समीप की हवा

संतृप्त बिंदु तक ठंडी होकर कोहरे का निर्माण करती है। अक्सर कोहरा भूमि के

समीप ही सीमित होता है किन्तु कभी-कभी कोहरा अधिक घना और रात भर छाया रहता

है। सुबह होने के बाद सौर विकिरण कोहरे को छितरा कर धरती तक पहुंचती है

जिससे कोहरा छटने लगता है। भूमि के गर्म होने पर इसके पास वाली वायुमंडल की

पर्त भी गर्म हो जाती है। जिसके कारण हवा का तापमान इतना हो जाता है कि

कोहरे की सूक्ष्म जल बूंदें वाष्पित होकर दृश्यता में वृद्धि करती है।





अभिवहन कोहरा उस समय उत्पन्न होता है जब अत्यंत आर्द्र हवा ठंडी सतह के ऊपर

बहती है। इस प्रकार की घटना उत्तरी अक्षांशों में वसंत ऋतु के आरंभिक

दिनों में जब ठंडी दक्षिण-पश्चिमी हवाएं बर्फीली सतह के ऊपर से गुजरती है

तब घटित होती है। इससे हवा की निचली पर्त जल्दी से ठंडी होकर कोहरे के बनने

के लिए आवश्यक तापमान तक ठंडी हो जाती है।





पहाड़ी कोहरे के नाम से ही स्पष्ट है कि यह कोहरा तब बनता है जब नम आर्द्र

हवा पहाड़ी या पहाड़ों की श्रृंखला पर चढ़ती है। पहाड़ों की ओर चलने वाली

पवनों की दिशा में हवा ठंडी होती है। यदि हवा संतृप्त हो जाती है तब बादल

बनते हैं पहाड़ी के शिखर के नीचे ये बादल कोहरे में बदल जाते हैं।





तटीय कोहरा अधिकतर तटीय क्षेत्रों में बनता है। यह कोहरा विशेषकर उत्तरी

अक्षांशों में जब आर्द्र हवा ठंडे सागर से गुजरने पर संतृप्त बिंदु तक ठंडी

हो जाती है तब तटीय क्षेत्रों में छा जाता है। इस प्रकार का कोहरा वसंत और

गर्मियों के दिनों में बनता है जो दक्षिणी-पश्चिमी और उत्तरी सागर तटीय

क्षेत्रों को प्रभावित करता है।





कोहरा और कुहासा दोनों हवा के निलंबित कणों पर जल की सूक्ष्म बूंदों से बने

होते हैं। इनमें जल की सूक्ष्म बूंदों के घनत्व के कारण अंतर होता है।

कुहासे की तुलना में कोहरे में जल की सूक्ष्म बूंदें अधिक होती हैं। कोहरे

की एक परिभाषा के अनुसार कोहरे में दृश्यता सीमा 1,000 मीटर से कम रह जाती

है। यह सीमा हवाई यातायात व्यवस्था के लिए उचित है लेकिन आम जनता और वाहनों

के लिए दृश्यता की 200 मीटर अधिकतम सीमा अधिक महत्वपूर्ण है। दृश्यता के

50 मीटर के कम हो जाने पर यातायात संबंधी अनेक अवरोध उत्पन्न होते हैं।





वर्षा एवं हिम




संघनित रूप में बादलों में उपस्थित जल की सूक्ष्म बूंदें या हिमकणों के आपस

में जुड़कर बड़ी बूंदों के बनने से बादल उन्हें लंबें समय तक स्थिर नहीं

रख सकते हैं और तब ये बड़ी बूंदें जल की बूंदों या हिमकण के रूप में धरती

पर गिरती हैं। जब बादलों के नीचे जलवाष्प अधिक हो और ऊपरी बल प्रबल हो तब

जलवाष्प बादलों में हिमकण या जल संघनित होती है।





वर्षा की बूंदों और बादलों की बूंदों में मुख्य अंतर उनका आकार है। वर्षा

की एक जटिल बूंद का आयतन बादलों की सूक्ष्म बूंद से लाखों गुना अधिक होता

है। इस प्रकार बादलों में अनेक बूंदों से बारिश की एक बूंद बनती है। बादलों

में असंख्य बूंदों के आपस में टकराने और मिलने पर वर्षा की बूंदे बनती

हैं। बादलों में जल की बूंदों का आकार बहुत ही छोटा होता है। वास्तव में ये

बूंदें एक सेंटीमीटर से भी बहुत छोटी होती हैं। वर्षा की बूंदों का व्यास

0.0254 सेमी. से लेकर 0.635 सेमी. तक होता है। शांत हवा में वर्षा की

बूंदें 3 से 8 मीटर प्रति सेकेण्ड की दर से बरसती हैं। बारिश की बूंदों के

बरसने की गति उनके आकार पर निर्भर करती है।





हिमकणों, हिमलव (स्नोफ्लेक) और अन्य जमे कणों के पिघलने पर भी वर्षा की

बूंदें बनती है। जब हिमांक बिंदु से कम तापमान वाली हवा में, अतिशीतित जल

की सूक्ष्म बूंदों में, हिमकण मौजूद होते हैं तब जल की सूक्ष्म बूंदों के

वाष्पन से हिमकणों का आकार बढ़ता है। दाब के कारण जल अणु का परिवर्तन जल से

बर्फ की अवस्था में होने लगता है। इस प्रकार बादल की द्रव बूंदों की

उपस्थिति में हिमकणों में तीव्र वृद्धि होती है। हिमांक बिंदु से कम तापमान

होने पर तैरते हुए हिमलव धरती को सफेद चादर से ढक देते हैं।





बर्फकणों में वृद्धि होने से भारी बर्फ गिरती है जिसके परिणामस्वरूप

हिमकणों में टक्कर और सम्मिलन होता है। एक हिमलव हिमकणों के समूह की आपसी

टकराहट से बनता है। इस प्रकार के कण हिमांक बिंदु से अधिक तापमान वाली वायु

पर्त पर गिर कर वर्षा की बूंदों में बदल जाते हैं। पहाड़ी क्षेत्रों में

सर्दियों के मौसम में अक्सर, बारिश और हिमपात होता है।





हमें यह याद रखना चाहिए कि विश्व में कहीं भी वर्षा या हिमपात के रूप में

होने वाला अवक्षेपण (वर्षण) धरती की सतह से वाष्पन द्वारा बनी जलवाष्प का

ही परिणाम होता है। धरती पर सदैव कहीं न कहीं उसी तरह वर्षा होती रहती है

जिस प्रकार से धरती की सतह के अधिकतर भाग से वाष्पन होता रहता है। किसी भी

समय धरती के सतह के केवल दो से पांच प्रतिशत हिस्से पर ही वर्षा होती है

जबकि धरती पर वाष्पन की क्रिया इसके 95 से 98 प्रतिशत भाग पर चलती रहती है।

हम यह कह सकते हैं कि भूमंडलीय स्तर पर जलवाष्प वर्षा तंत्र पर, जिसमें

जलवाष्प वर्षण मे बदलती है, कम ही ध्यान केंद्रित करती है।





वर्षा और हिमपात का मापन




हम ‘200 मिमी. वर्षा’ जैसे शब्द से परिचित हैं; लेकिन क्या हम इसका मतलब

जानते हैं? वास्तव में यह पूर्ण समतल सतह पर गिरने वाली वर्षा के जल को

संचित मात्रा की ऊंचाई है और अप्रत्यक्ष रूप से यह वर्षा के द्वारा बरसने

वाले पानी की माप है। इस प्रकार यदि 10 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में 200

मिमी. वर्षा होती है तब उस क्षेत्र में बरसे कुल जल का आयतन करीब

[(10×1000×100×10)2×200] घन मिमी. होगा। किसी क्षेत्र विशेष में बरसने वाली

वर्षा की मात्रा को मापने के लिए वर्षामापी नामक युक्ति का उपयोग किया

जाता है। जिसमें एक मापक बेलनाकार पात्र में एकत्र हुए वर्षा जल का आयतन

मिमी. में मापा जाता है।





वर्षामापी प्रमुख प्राचीन मौसम उपकरण है। ऐसा माना जाता है कि भारत में

इसका उपयोग 2000 साल पहले से किया जा रहा है। कौटिल्य द्वारा रचित

अर्थशास्त्र में लिखा है कि वर्षामापी का उपयोग अनाज उत्पादन के मानक

सार-लेखन को निर्धारित करने में किया जाता था। प्रत्येक राज्य के भंडार

गृहों में मानक वर्षामापी होते थे जिनका उपयोग कर उगाही के उद्देश्य के लिए

भूमि को वर्गीकृत करना होता था।





अधिकतर मानक वर्षामापी एक ऐसा बेलनाकार पात्र होता है जिसमें ऊपर की ओर एक

चौड़ी कीप (फनल) होती है। इस पात्र का आकार इस प्रकार होता है कि इसके

अन्दर एकत्र होने वाले वर्षा के जल की एक मिमी. मात्रा को एक सेंटीमीटर

वर्षा माना जाता है। इस पात्र में लगी कीप वर्षा की बूदों को कीप की बाहरी

सीमा से फैलने से रोकती है। मानक मौसमी वर्षामापी के कीप का छेद 150 से 170

सेंटीमीटर ऊपर रखा जाता है और इसे भूमि से 30 सेंटीमीटर ऊपर स्थिर (सेट)

किया जाता है। प्रायः मापक बेलनाकार पात्र की तुलना में कीप का अनुप्रस्थ

परिच्छेद दस गुना अधिक होता है। वर्षामापी उपकरण से 0.02 मिमी. तक की कम

वर्षा को मापा जा सकता है। 0.02 मिमी. से कम मात्रा को सूक्ष्म मात्रा माना

जाता है।





हिमपात को भी इसी प्रकार मापा जाता है। एक सतह पर हिम को एकत्र कर पिघला कर

जल के आयतन को मापा जाता है। वर्षण की अंकित मात्रा को हमेशा बारिश या

पिघली हिम के रूप में व्यक्त किया जाता है। औसत रूप से 10 मिमी. हिमपात की

मात्रा एक मिमी. वर्षा के बराबर मानी जाती है। लेकिन यह केवल एक औसत है।

हिमपात को हिमपात की वास्तविक गहराई के संदर्भ में भी मापा जाता है। यह

गहराई तीन या तीन से अधिक स्थानों की औसत मात्रा के रूप में प्रदर्शित की

जाती है। एक छड़ी से बर्फ को तोड़कर इसकी गहराई दर्ज की जाती है। लेकिन हवा

के बहने व विस्थापन के कारण तीन या अधिक प्रतिनिधित्व स्थानों का निर्धारण

करना सदैव आसान नहीं होता है।





मानसून




भारतीय उपमहाद्वीप में वार्षिक वर्षा की 90 प्रतिशत मात्रा ग्रीष्म मानसून

के दौरान चार महीनों की अवधि में बरसती है। मानसून शब्द अरबी भाषा के

‘मुसिन’ शब्द से लिया गया है। जिसका अर्थ ‘हवाओं का मौसम’ है। मानसून मौसमी

हवाओं के हिंद महासागर और उसके आसपास के क्षेत्रों के साथ अरब महासागर की

ओर विस्थापन से संबंधित होता है। ये पवनें आधे साल दक्षिण पश्चिम से तथा

आधे साल उत्तर पूर्व से बहती हैं।





ग्रीष्म मानसून को ‘दक्षिण-पश्चिम मानसून’ के नाम से भी जाना जाता है जो

दक्षिण-पश्चिम से उपमहाद्वीप में प्रवेश करता है। ये हवाएं हिन्द महासागर

से आर्द्रता लेकर जून से लेकर सितम्बर महीने तक भारी वर्षा करती हैं।

अक्सर मूसलाधार बारिश भूस्खलन और व्यापक बाढ़ों का कारण बनती हैं। मानसूनी

वर्षा के दौरान गांव के गांव बह जाते हैं। ग्रीष्म मानसून की विनाशलीला के

बाद भी भारत में इसका स्वागत किया जाता है क्योंकि किसान अपने खेतों में

सिंचाई के लिए वर्षा पर निर्भर रहते हैं। इसके अतिरिक्त भारत में मानसूनी

वर्षा से प्राप्त जल से विद्युत का उत्पादन भी किया जाता है।





प्रायद्वीपीय भारत में अक्टूबर से दिसम्बर की अवधि उत्तर-पूर्वी मानसून की

सूचक होती है। इस दौरान मानसूनी पवनें उत्तर-पूर्व से बहकर बंगाल की खाड़ी

से सटे तटीय क्षेत्रों में प्रचुर मात्रा में बारिश करती हैं।





एल-नीनो




भारतीय मानसून को प्रभावित करने वाले अनेक कारक हैं। एल-नीनो उनमें से एक

कारक है जो पेरू तट के निकट प्रशांत महासागर की जलवायु में होने वाला

अस्थायी परिवर्तन है। सामान्यतया प्रशांत महासागर में भूमध्य रेखा के साथ

पूर्व से पश्चिम दिशा की ओर प्रबल पवनें चलती हैं। इसके परिणामस्वरूप इस

क्षेत्र के पूर्वी भाग में गहरा जल (जो सूर्य की ऊष्मा से प्राप्त सतही जल

से ठंडा होता है) नीचे से ऊपर की ओर उठता है और उसके नीचे पश्चिम से पानी

ढकेला जाता है। इस प्रकार सामान्य परिस्थिति में पश्चिम में गर्म पानी

(लगभग 300C ) और पूर्व में ठंडा पानी (लगभग 220C) होता है। एल-नीनो में

पानी को ढकेलने वाली हवाएं कमजोर पड़ जाती हैं। जिसके परिणामस्वरूप पूर्वी

प्रशांत महासागर की ऊपरी सतह का पानी पश्चिम से पूर्व की ओर नहीं जा सकता

और न ही नीचे से ठंडा पानी ऊपर आता है। इन दोनों प्रवृत्तियों से पूर्वी

प्रशांत महासागर के पानी का गर्म होना एल-नीनो का सूचक है। एल-नीनो की घटना

लैटिन अमेरिका के साथ वाले भूमध्यसागरीय प्रशांत महासागर की सतह के या

उसके केंद्र के गर्म होने की वजह से घटती है।





एल-नीनो का प्रभाव सामान्यतया उत्तरी गोलार्द्ध की सर्दियों में महासागरों

और वायुमंडल दोनों पर दिखाई देता है। जटिल रूप से महासागरीय सतह कुछ डिग्री

सेल्सियस तक गर्म हो जाती है। उसी समय भूमध्य तड़ित झंझा वाले स्थान पूर्व

की ओर खिसक जाते हैं। यद्यपि यह विसंगति बहुत छोटी लगती है लेकिन यह

दूरस्थ मौसम पर भी गंभीर प्रभाव डाल सकती है।





उदाहरण के लिए भारत में पिछले 132 वर्षों के दौरान होने वाली वर्षा के

आंकड़ों पर नजर डालें तो सूखे की अनेक घटनाओं के लिए एल-नीनो को जिम्मेदार

ठहराया जा सकता है। हालांकि शोधकर्ताओं के लिए यह तथ्य रहस्य बना हुआ है कि

एल-नीनों की सभी घटनाओं से सूखा नहीं पड़ने का कारण क्या है? भारत के सकल

घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में कृषि का योगदान लगभग 20 प्रतिशत होने के कारण

यहां की अर्थव्यवस्था के लिए मानसून के बारे में सही भविष्यवाणी आवश्यक है।

फसल के प्रभावित होने का सामाजिक और आर्थिक असर होता है, इसलिए भारतीय

मानसून पर एल-नीनों के पड़ने वाले प्रभाव को समझना आवश्यक है। यह रहस्य अब

उजागर होने लगा है कि गर्म समुद्री सतह के तापमान में होने वाली विसंगति के

साथ एल-नीनों की घटना से भारतीय मानसून पर प्रभाव पड़ता है। पूर्वी

भूमध्यवर्ती प्रशांत महासागर की तुलना में केद्रीय भूमध्यवर्ती प्रशांत

महासागर के गर्म सागरीय सतह के तापमान का भारत में सूखे की स्थिति उत्पन्न

करने में अधिक योगदान है।





सूखा




यदि भारी वर्षा बाढ़ का कारण बनती है तो वर्षा की अत्यधिक कमी से सूखे की

स्थिति पैदा होती है। रेगिस्तानी क्षेत्रों को छोड़कर विश्व के अधिकतर

हिस्सों में वर्ष में नियमित वर्षा होती है। भारत जैसे देशों में वार्षिक

मानसून भारी वर्षा करता है जिससे कृषि में स्थायित्व आने के साथ पानी की

आवश्यकता की पूर्ति होती है। लेकिन कभी-कभी वर्षा की कमी से सूखे की स्थिति

निर्मित होती है। सूखा पड़ने पर जल की भारी कमी होने के साथ फसल को काफी

नुकसान होता है। भारत में एक ही समय में एक हिस्से में बाढ़ का आना और

दूसरे हिस्से में सूखा पड़ना असमान्य बात नहीं है। लेकिन आखिर सूखे का कारण

क्या है?





किसी विशिष्ट क्षेत्र में एक मौसम, एक वर्ष या अनेक वर्षों तक अपर्याप्त

वर्षा या पानी की लम्बे समय तक कमी के कारण शुष्कता की स्थिति को सूखे के

रूप में परिभाषित किया जाता है। अपर्याप्त वर्षा के कारण पड़ने वाले सूखे

को मौसमी सूखा कहते हैं, यह घटना किसी क्षेत्र में औसत वर्षा में

महत्वपूर्ण कमी होने पर घटित होती है। पूरे देश में औसत रूप से सामान्य

मानसून होने पर भी इसके विभिन्न जिलों और उपक्षेत्रों में सामान्य से कम

मौसमी वर्षा हो सकती है।





भूमि पर पर्याप्त वर्षा न होने पर सूखा पड़ता है और केवल वायुमंडल के ठंडे

क्षेत्रों में ही जलवाष्प के संघनन से बारिश हो सकती है। यदि हवा ऊपर नहीं

उठती है तब वर्षा नहीं होती है। जब उच्च वायुदाब हो और हवा के ऊपर नहीं

उठने से जलवाष्प का ऊपर की ओर संचरण न हो तो इसके परिणामस्वरूप संघनन

क्रिया के न होने से बहुत कम वर्षा होती है। इसके अलावा धूप वाले दिनों और

साफ मौसम में उच्च दाब का क्षेत्र बादलों और हवा को दूर धकेलता है दूसरी

तरफ कम दाब का क्षेत्र बादलों भरा और तूफानी मौसम का सूचक होता है।





हमें निम्न और उच्च दाब प्रणाली के बारे में पता है। किसी स्थान से उच्च

दाब तंत्र के गुजरने पर और निम्न दाब तंत्र द्वारा उच्च दाब तंत्र को

प्रतिस्थापित करने के कारण बारिश का होना सामान्य घटना है। फिर भी किसी

स्थान पर जब उच्च दाब क्षेत्र स्थिर हो जाए एवं लंबे समय तक धूप वाला मौसम

रहे तो वहां सूखा पड़ सकता है। ऊपरी वायुमंडल में जेट प्रवाह उच्च दाब

क्षेत्र को बाधित करने के साथ बारिश को रोक सकता है।





वायु प्रवाह के द्वारा जलवाष्प के उचित समय पर उचित क्षेत्रों में न पहुंच

पाने के कारण सूखा पड़ता है। महासागरों से जल वाष्पित होकर हवाओं द्वारा

ऐसे भूभाग की ओर लाया जाता है जहां इसकी आवश्यकता है। कभी-कभी ये पवनें

पर्याप्त प्रबल नहीं होती हैं। गर्मियों के दिनों में मानसून हिंद महासागर

क्षेत्र के उत्तर से जलवाष्प लाकर आवश्यक वर्षा करता है। कभी-कभी मध्य

भूमध्यवर्ती प्रशांत महासागर के एल-नीनो जैसी घटनाएं मानसून को प्रभावित

करने और भारतीय उपमहाद्वीप में पर्याप्त नमी के न पहुंच पाने के कारण

मानसून की असफलता और सूखे का कारण बनती हैं।




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Comments YOGESH KUMAR on 13-11-2022

-Varsha-Ki-Matra-Kis-Par-Nirbhar-Karti-Hai

SHIVESH PANDEY on 25-02-2022

वर्षा की मात्रा किस पर निर्भर करती है?
>>वर्षा की मात्रा वायुमंडल में नमी पर निर्भर करती है..

Pari Singh on 13-06-2020

Monsoon Ne varsh ki Matra aur Samay kin Baton par nirbhar karti hai






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