बिश्नोई Jat बिश्नोई जाट

बिश्नोई जाट



Pradeep Chawla on 12-05-2019

बिश्नोई भारत का एक हिन्दू सम्प्रदाय है जो जिसके अनुयायी राजस्थान आदि प्रदेशों में पाये जाते हैं। श्रीगुरु जम्भेश्वर जी पंवार को बिश्नोई पंथ का संस्थापक माना जाता है।



बिश्नोई दो शब्दों से मिलकर बना हुआ है: बीस + नो अर्थात [(29)] ; अर्थात जो उनतीस नियमों

का पालन करता है। 29 नियमो को कुछ हद तक सरलता में समझाने की कोशिश इस

प्रकार है बिश्नोई के घर में जब किसी बच्चे का जन्म होता हैं तो तीस दिन के

बाद उसको सँस्कार ओर 120 शब्दो से हवन करके तथा पाहल पिला कर बिश्नोई

बनाया जाता हैं 1तीस दिन सूतक, महिला जब पांच दिन पीरियड के समय हो तो

रसोईघर में नही जाती पूजा पाठ नही करती 2पांच दिन ऋतुवती न्यारो , सुबह

अम्रत वेला यानी कि सूर्य के उदय होने से पहले स्नान करना 3सेरा करो स्नान,

प्रतिदिन प्रात:काल स्नान करना। शीलता का पालन करना हमेशा शील गुण रखना

किसी के प्रति वैर भाव नही रखना4. शील का पालन करना। सतोषि नर सदा सुखी मन

में हमेशा सतोष रखना 5. संतोष का धारण करना। 6. बाहरी एवं आन्तरिक शुद्धता

एवं पवित्रता को बनाये रखना। सुबह ,दोपहर ओर शाम के समय विष्णु भगवान् की

पूजा जप करना7. तीन समय संध्या उपासना करना। सुबह और शाम दोनों समय सन्ध्या

की वेला हो तो हरि गुण गाना8. संध्या के समय आरती करना एवं ईश्वर के गुणों

के बारे में चिंतन करना। 9. निष्ठा एवं प्रेमपूर्वक हवन करना। 10. पानी,

ईंधन व दूध को छान-बीन कर प्रयोग में लेना। हमेशा शुद्ध और मीठी वाणी बोलना

कभी अप्रिय भाषा का प्रयोग नही करना 11. वाणी का संयम करना। 12. दया एवं

क्षमा को धारण करना। 13. चोरी नही करना 14.किसी की निंदा नही करना 15. झूठ

तथा 16. वाद – विवाद का त्याग करना। 17. अमावश्या के दिनव्रत करना। 18.

विष्णु का भजन करना। 19. #जीवों के प्रति दया का भाव रखना। 20. #हरा वृक्ष

नहीं कटवाना। 21. काम, क्रोध, मोह एवं लोभ का नाश करना। 22. रसोई अपने हाध

से बनाना। ऐसे वैसी जगह में जहाँ शुद्ध भोजन ना हो वहाँ नही खाना चाहिए 23.

परोपकारी पशुओं की रक्षा करना। ओर ये सब नशे है जो नही करना 24. अमल, 25.

तम्बाकू, 26. भांग 27. मद्य तथा 28. नील का त्याग करना। बैल को बाधना नही

चाहिए 29. बैल को बधिया नहीं करवाना।









अनुक्रम



  • 1उनतीस नियम
  • 2बिश्नोई समाज के गोत्र-
  • 3समाज की स्थापना
  • 4इन्हें भी देखें
  • 5बाहरी कड़ियाँ
  • 6सन्दर्भ






उनतीस नियम









बिश्नोई मन्दिर मुक्तिधाम मुकाम, नोखा, बीकानेर, राजस्थान






बिश्नोई पन्थ के उनतीस नियम निम्नलिखित हैं :-



1. तीस दिन सूतक



2. पंच दिन का रजस्वला



3. सुबह स्नान करना



4. शील, संतोष, शुचि रखना



5. प्रातः-शाम संध्या करना



6. साँझ आरती विष्णु गुण गाना



7. प्रातःकाल हवन करना



8. पानी छान कर पीना व वाणी शुद्ध बोलना



9. ईंधन बीनकर व दूध छानकर पीना



10. क्षमा सहनशीलता रखे



11. दया-नम्र भाव से रहे



12. चोरी नहीं करनी



13. निंदा नहीं करनी



14. झूठ नहीं बोलना



15. वाद विवाद नहीं करना



16. अमावस्या का व्रत रखना



17. भजन विष्णु का करना



18. प्राणी मात्र पर दया रखना



19. हरे वृक्ष नहीं काटना



20. अजर को जरना



21. अपने हाथ से रसोई पकाना



22. थाट अमर रखना



23. बैल को बंधिया न करना



24. अमल नहीं खाना



25. तम्बाकू नहीं खाना व पीना



26. भांग नहीं पीना



27. मद्यपान नहीं करना



28. मांस नहीं खाना



29 नीले वस्त्र नहीं धारण करना



यही [29 नियम] श्री जम्भेश्वर भगवान द्वारा अपनी काव्य भाषा में इस प्रकार हैं



तीस दिन सूतक, पांच ऋतुवन्ती न्यारो।



सेरो करो स्नान, शील सन्तोष शुचि प्यारो॥



द्विकाल सन्ध्या करो, सांझ आरती गुण गावो॥



होम हित चित्त प्रीत सूं होय, बास बैकुण्ठे पावो॥



पाणी बाणी ईन्धणी दूध, इतना लीजै छाण।



क्षमा दया हृदय धरो, गुरू बतायो जाण॥



चोरी निन्दा झूठ बरजियो, वाद न करणों कोय।



अमावस्या व्रत राखणों, भजन विष्णु बतायो जोय॥



जीव दया पालणी, रूंख लीला नहिं घावै।



अजर जरै जीवत मरै, वे वास बैकुण्ठा पावै॥



करै रसोई हाथ सूं, आन सूं पला न लावै।



अमर रखावै थाट, बैल बधिया न करवौ॥



अमल तमाखू भांग मांस, मद्य सूं दूर ही भागै।



लील न लावै अंग, देखते दूर ही त्यागे॥



“उन्नतीस धर्म की आखड़ी, हिरदै धरियो जोय।



जाम्भे जी किरपा करी, नाम बिश्नोई होय॥”



बिश्नोई समाज के गोत्र-

अग्रवाल्,

अडींग्, अभीर् / अहीर् / अहैर्, अडोल्, अवतार्, अहोदिया, अत्रि, अतलि,

आंजणा, आमरा, आयस्, आसियां, आनणा, आखा, अखिंड्, इहरामईसराम्), ईसरवा,

ईसरवाल्, ईनणिया, ईयारं, ईडंग्, उत्कल्, उमराव्, ऊनिया, ऐचरा, ऐरण्,

ऐरब्,ओऊ,ओला, ओदिया (अहोदिया), ओटिया, ओरवा, कडवासरा (कुराडा),

कसवझ(कावां),करीर्, कणेंटा, कसबी, कबीरा, कलवाणिया, कलेडिया, कमणीगारा,

करड्, कमेडिया, कच्छवाया / कच्छवाई, कश्यप, कालीराण (कल्याणा), काकड्,

कालडा, कासणिया, कामटा, कांसल्, कांगडा, किरवाला, कीकरं,खदाब्, खडहड्,

खेडी,खोखर,खाट्, खाती, खावा, खारा, खिलेरी, खीचड़, खुडखुडीया, खेरा,

खोखर्,खोत्, खोजा, खोड्, गर्ग, गावाल्,गाट्,गिल्ला, गुरु, गुजेला (उदावत्),

गुरुसर्, गुजर्, गुलेचा, गुप्ता, गुरुड, गुडल्, गेर, गेहलोत, गोदारा

(सोनगरा, उदाणी, खिरंगिया, धोलिया, बब्निड्), सिसोदिया, देवड़ा, गेहलोत्,

गोरा, गोयत्, गोयल् (गोभिल्, गोविल, गोहिल्),गोगियां, गोला, गौड्, घणघस्,

घ्टियाल्, घांगु, चंदेल्, चोटिया, चमण्डा, छींपा (दरजी), ज्वर्(जौहर्),

जांगु, जाखड्, जायल्, जाजुदा, जाणी(ज्याणी), जांगडा, झांस, झांग्, झाझडा,

झाझण्, झाला, झूरिया, झोधकण (जोधकरन्), झाडा,झोरड्, ट्ण्डन्, टाडा, तांडी,

टुसिया(टुहिया), टोकसिया, ठकरवा, ठोड्, डबोकिया, डारा, डागा, डागर्,

डींगल्, डूडी, डेहला, डेलू, डोगिपाल्, ढल्, ढहिया,ढाका, ढाढरवाल्,

ढाढ्णिया, ढिड्, ढूंढिया, ढूकिया (डहूकिया), तल्लीवाला, तरड्, तंवर (तीवंर,

तुंवर्, तुअर्, तोमर्) तगा (त्यागी), तांडी, तापास, तायल्, तांडा, तुंदल्,

तुरका, तेतरवाल्, तेली,तोड्, थलवट्, थालोड्, थापन्, थोरी, दडक (धडक्),

दरजी, दासा, दिलोहया (दुलोलिया)दुगसर्, देहडू, दहिया, देवडा (खेडेवाला),

टोहरवाला, मोड्, लोडा, दोतड्, धतरवाल्, धधारी, धारणियां, धायल, धारिया,

धूमर्, नरुका, नकोसिया, नफरी, नाडा, नाइया, नागर्, नाथ, नाई, निरबाण्,

नीबीबागा, नेहरा, नैण्, परमार (पंवार्, पवार्, पुवार्, पुआर्), पडियाल

(पडिहार्),पठान्, पराशर्, प्यारी, पालडिया, पारस्, पाल्, पाटोदिया, पारिक्,

पीथरा, पुरवार् (पुरवाल्, पोरवाल्, पैरवाल्), पुइया,

पुष्करणझ(पोहकरण्),पूनिया, पोटलिया, फलावर्, बरड्, बदिता, बडोला, बडएड्,

ब्रदाई, बनगर्, बटेसर्, बलावत्,बल्ड्किया, बजाज्, बलोईया, बछियाल्, बलाई,

बडोला, बसोयाल्, बंसल्, बदिया, बल्हाकिया, बरुडिया, बाबल्, बाणीछु,बागडिया,

बाजरिया, बाडेटा, बाणिया (बनिया), बावरी, बांगडवा, बाना, बाजिया, बाडंग्,

बासत्, बागेशु, बाकेला, बानरवाल्(अहिर्), बिछु, बिडासर्, बिलाद्, बिडाल्,

बिडग्, बिडियारझ (बिडार्,बिलोनिया, बीलोडिया, बूडिया, भवाल्, भट्ट्,

भलूंडिया, भांबू, भादू, भारवर्, भोडर्, भाडेर्,भारद्वाज्, भिलूमिया, भीचर्,

भोजावत, भोडिसर्, भोछा, भुरटा, भुरन्ट्, भुट्टा, भूल्, भूश्रण्, मण्डा,

मतवाला, महिया, मल्ला, मारत्, माँझू, माल्, माचरा, मालपुआ, मालपुरा,

मालीवाल्,माहेश्वरी, मातवा, मान्दु, माई, मांगलिया, मिश्र्, मितल्, मील्,

मीठातगा, मुरटा, मुंडेल्, मुदगिल्, मुरिया (मावरिया), मूंढ, मेहला, मेवदा,

मोहिल्, मोगा, रशा, रंगा, रघुवंशी, राड् (राहड्),रायल, राव्, रावत्,

राठौड्, रणोड्, रिणवा, रुबाबल, खोडा, रोहज्, रोझा, रोड्, लटियाल्, लरियाल्,

लाम्बा, लागी, लोल्, लोहमरोड्, लुहार्, वरा, व्यास्, वरासर्, वासनेय्,

वात्सलय्, विलाला, विसु, सराक्, सरावग, सहू (साहू,सोहू), सदु, सगर्, साई,

सांवक्, सहारण(सारन्), सांखल्(सागर्), सारस्वत्, साबण्(शाबण्), सियाक्

(सियाख, सियाग्, सिहाग्), सिसोदिया (सागर्), सिंगल (सिंगला, सिंघल्,

सिंहला), सिंवर्, सिंवल् (सिंयोल), सिवरखिया, सिरडक्, सिरोडिया, सिंधल्

(राठोड्),सिरडिया, सीलक्, सीगड्, सुथार् (खाती, जांगडा, बढई, तरवान्),

सुनार, सूर्, सेरडिया, सेवदा, सेहर् (शेर्), सेधो (सेथो), सेंगडा, सोढा,

सोलंकी, सोनक् (सुनार्), शांक, शाह, शाण्ड्लय्, शिव्, श्रीमाली, शिढोला,

हरडू, हरीजा, हाडा (उदावत्, बलावत्, भोजावत्), हरिया, हरिवासिया, हुमडा,

हुड्डा। गोदारा, बेहनीवाल् (बिणयाल् लोल्, मांजू, बेरवाल्, पंवार्, खोखर्,

टोकसिया, जाणी, तेतरवाल्, नैण्, गर्ग्, सहू, पूनिया, चैहान।बांगडिया

(बागंडवा), चौहान् (चवाण्), लटियाल्, सिंवल, सियोल्, सिंवर्, गूजर गौड्,

बांवरा, अग्रवाल्, दडक्, तंवर् (तीवंर्), पंवार् (पुआर्), सोढा,

पण्ड्वालिया (पवाडिया)। चांगडा, पाटोदिया, सीलक् (छटिया), देहिया, भुरटा,

जाला, झांस, लूदरिया, लुहार्, धामु, गुजर, पंवार कुलहडिया। चौहान्

(शाण्डलय्), थापन् (चौहान्, सहू), बाघेला, राठौड्, देवडा (मोड्, लोडा,

खेडेवाला, टोडरवाला), सिसोदिया (सागर्), चन्देल्, हाडा(भोजावत्, उदावत,

बलावत्), मोहिल्, पंवार्, गुजेला, सांखला (एयर)। नोटःथापन गोत्र्,,सुथार

गोत्र तथा दनगर पूर्बिया (पुर) गोत्र्-सभी को गोतों की व्रुहद सूची में भी

सम्मिलित हुआ है। जाट(80 प्रतिशत्), ब्राम्हण्, कुरमी, अहीर्, सुथार (खाती,

जांगडा, बढई, तरखाना), सुनार्, नाई, तेली,दनगर पूर्बिया (पुर्), गुजर्,

गुप्ता (वंश्), छिंपा (दरजी), तगा (त्यागी), माहेश्वरी, कसबी, बेहडा,

जुलाहा (बुनगर्, बेजरा), पुष्पकरणा(पोहकरणा), बजाज्, बाणिया (बनिया),

सारस्वत्, श्रीमाली



बिश्नोई समाज के गोत्र



समाज की स्थापना

बिश्नोई धर्म का प्रवर्तन (सम्वत् 1542)


सम्वत् 1542 तक जाम्भोजी की कीर्ति चारों और फेल गई और अनेक लोग उनके

पास आने लगे व सत्संग का लाभ उठाने लगे। इसी साल राजस्थान में भयंकर अकाल

पड़ा। इस विकट स्थिति में जाम्भोजी महाराज ने अकाल पीडि़तों की अन्न व धन्न

से भरपूर सहायता की। जो लोग संभराथल पर सहायत हेतु उनके पास आते, जांभोजी

महाराज अपने अखूठ (अकूत) भण्डार से लोगों को अन्न धन्न देते। जितने भी लोग

उनके पास आते, वे सब अपनी जरूरत अनुसार अन्न जले जाते। सम्वत् 1542 की

कार्तिक बदी 8 को जांभोजी महाराज ने एक विराट यज्ञ का आयोजन सम्भराथल धोरे

पर किया, जिसमें सभी जाति व वर्ग के असंख्य लोग शामिल हुए।ज्यादातर बिश्नोई

जाट

से बने हैं जिन्हें बिश्नोई जाट भी कहा जाता है। गुरु जम्भेश्वर भगवान ने

इसी दिन कार्तिक बदी 8 को सम्भराल पर स्नान कर हाथ में माला औरमुख से जप

करते हुए कलश-स्थापन कर पाहल (अभिमंत्रित जल) बनाया और 29 नियमों की दीक्षा

एवं पाहल देकर बिश्नोई धर्म की स्थापना की। इस विषय में कवि सुरजनजी

पूनियां लिखते हैं-



करिमाला मुख जाप करि, सोह मेटियो कुथानं।
पहली कलस परठियौ, सझय ब्रह्मांण सिनान।।


उस समय लोगों ने गुरु महाराज द्वारा स्थापित इस नवीन सम्प्रदाय के प्रति

विशेष उत्साह दिखाया था। लोगों के समूह के समूह आकर पाहल ग्रहण करके

दीक्षित होने लगे थे। हजूरी कवि समसदीन ने एक साखी में संभराथल पर दीक्षित

होने आते हुए लोगों का वर्णन इस प्रकार किया है-



हंसातो हंदीवीरां टोली रे आवै, सरवर करण सनेहा।
जारी तो पाहलि वीरा पातिक रे नासे, लहियो मोमण एहा।


कवि उदोजी नैण के अनुसार यह उत्तम पंथ है। यदि जांभोजी बिश्नोई पंथ नहीं चलाते तो पृथ्वी पाप में डूब जाती-



नीच थका उत्तिम किया, न्यानं खडग़ नाव अती।
उत्तिम पंथ चलावियो उदा, प्रथी पातिंगा डूबती।।


एक अज्ञात साखीकार ने इसे सहज पंथ कहा है-



कलिकाल वेद अर्थवण, सहज पंथ चलावियो।
संभराथल जोत जागी, जग विणण आवियो।


जाम्भोजी से पाहल लेकर सर्वप्रथम बिश्नोई बनने वालों में पूल्होजी पंवार

थे। ये 29 नियम बिश्नोई समाज की आचार संहिता है। बिश्नोई समाज आज तक इन

नियमों का पूरी दृढ़ता से पालन करता आ रहा है। बिश्नोई बनाने का यह कार्य

अष्टमी से लेकर कार्तिक अमावस (दीपावली) तक निरंतर चलता रहा। महात्मा

साहबरामजी ने जम्भसार के आठवें प्रकरण में लिखा है-



आदि अष्टमी अंत अमावस च्यार वरण को किया तपावस।
दीपावली कै प्रात: ही काला बारहि कोड़ कटे जमजाला।।


इस प्रकार सभी जाति, वर्ण व धर्म के लोगों द्वारा पाहल लेकर बिश्नोई

बनने की प्रक्रिया शुरू हुई और बिश्नोई धर्म का प्रवर्तन हुआ। जाम्भोजी

महाराज का भ्रमण व्यापक था। उन्होनें भारत के लगभग सभी प्रदेशों का भ्रमण

किया। भारत के बाहर भी लंका, काबुल, कंधार, ईरान व मक्का तक जाने की बात भी

कही जाती है। उन्होनें अपने एक सबद (शुक्ल हंस संख्या 63) में कई स्थानों

पर जाने का वर्णन किया है। उनकी वाणी व उनके महान व्यक्तितत्व का प्रभाव

सभी लोगों पर पड़ा, जिनमें राज वर्ग, साधु संत और गृहस्थी भी थे। बिश्नोई

धर्म में लोगों के शामिल होने के कई प्रधान कारण थे जैसे-



1. जाम्भोजी का महिमामय व्यक्तित्व



2. परोपकारी वृति



3. ज्ञानोपदेश



4. जिज्ञासा और शंका का समाधान



5. सम्प्रदाय की श्रेष्ठता



6. कार्य विशेष की सिद्धि



7. जीव दया (अंहिसा) एवं हरे वृक्षों को न काटना, आदि-आदि।




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