Katthak Ke Bol कत्थक के बोल

कत्थक के बोल



Pradeep Chawla on 20-10-2018


कथक नृत्य सीखने वाले विद्यार्थियों को शास्त्र का भी उचित ज्ञान होना आव्यशक है । यह प्रस्तुति प्रथम वर्षा के शास्त्र पाठ्यक्रमों को ध्यान में रखते हुए लिखी गयी है ।कुछ पिछले वर्षों के प्रश्न पत्रों में से चुने हुए सवालों का भी उत्तर प्रस्तुत किया गया है । विद्यार्थी यह ध्यान में रखे कि क्रियात्मक पाठ्यक्रम में से भी सवाल प्रश्न पत्रों में पायी जाते हैं । अतएव वे उन्हें भी ताल लय बद्ध रचना में लिखने कि प्रयास रखे ।
यह प्रस्तुति प्रयाग संगीत समिति एवं भातखण्डे संगीत विद्यापीठ के पाठ्यक्रम के अनुसार है । रचनात्मक सुझावों का सदैव स्वागत है ।
मैं अपने गुरु श्रीमती अजंता झा की आभारी हूँ जिनसे मुझे कथक नृत्य कला का ज्ञान प्राप्त हुआ है ।
उम्मीद करती हूँ की यह प्रयास विद्यार्थियों के लिए उपयोगी होगा ।

सूचि (First year)
1.पारिभाषिक शब्द
2.संगीत पद्धतियां
3.तालों का पूर्ण परिचय
4.पिछले प्रश्न पत्रों से




1.पारिभाषिक शब्द



कुछ पारिभाषिक शब्द :-


कत्थक नृत्य :-भारतवर्ष में जो शास्त्रीय नृत्य प्रचलित है उनमे कत्थक नृत्य प्रमुख है |
यह उत्तर भारत का प्रचलित शास्त्रीय नृत्य है|
कत्थक शब्द की उत्पत्ति ‘कथक’ से हुई थी|’कथा करोति कत्थक’ यथार्थ जो कथा करता है वह कत्थक है|
कथक का मुख्या उद्येश अपने अभिनय के माध्यम से लोगों तक अपनी कथा को प्रस्तुत करना है|
यह एक प्राचीन परंपरा है एवं मोहनजोदड़ो और हरप्पा की खुदाई में कथक करती हुईं मूर्तियां पाई गयी है|
यह नृत्य अपनी पारम्परिक वेशभूषा में की जाती है| तबले या पखावज की संगत दी जाती है|नृत्य में घुंगरूंओं का विशेष प्रयोग होता है|नर्तक ठाट ,तोड़े ,परन,टुकड़े के साथ अभिनय एवं भाव से अपनी कला को प्रस्तुत करता है|


तत्कार:- कथक नृत्य में पैरों एवं पैरों में बंधे घुंगरूंओं से जो ध्वनि की उत्पत्ति होती है उसे तत्कार कहते है|कथक नृत्य में इसका भारी महत्व है|ता ,थे, ई ,इन नृत्य के वर्णों से बनी छंद रचना को ततकार कहा गया था जो की अपभ्रंश रूप में तत्कार के नाम से प्रचलित हो गया
व्याख्या किया गया है की ‘ता’ का अर्थ है तन,’था से थल ,और ई से ईश्वर,यथार्थ तन से थल पर जो भी नृत्य करो वह ईश्वर के लिए करो|
तत्कार के द्वारा नृत्यकार विभिन्न लयकारी एवं बोलों को प्रस्तुत करता है|प्रत्येक ताल के मात्रा , विभाग , और ठेके के अनुसार उनके तत्कार होतें है|तत्कार के अलग अलग बोलों की निकासी पैरों के अलग स्थानों को अलग तरीके से चोट करने पर निकलती है|


ठाट :-कथक नृत्य के आरम्भ करने के तरीके को ठाट कहते हैं|ठाट शब्द का अर्थ है आकार|कथक में ‘ठाट’ से नर्तक अपनी संपूर्ण नृत्य की रूपरेखा दर्शकों के सामने प्रस्तुत करता हैं|वह मुखड़े, टुकड़े तिहाई आदि लेकर नेत्र,भौएं ,गर्दन,आदि का लयबद्ध एवं तालबद्ध सचांलन करता है |
ठाट को लक्षण नृत्य भी कहते हैं|इसमें किसी प्रकार का भाव का प्रदर्शन नहीं होता बल्कि अंग, उपांग एवं प्रत्यंगों का परिचालन किया जाता है


आवर्तन :- किसी भी ताल की पूरी मात्राएं या संपूर्ण बोल से एक आवर्तन होती है ।अर्थात किसी भी ताल की पहली मात्रा से अंतिम मात्रा तक पूरा करके जब फिर पहली मात्रा पर आतें हैं तब एक आवर्तन पूरा होता है ।


ठेका :-किसी भी ताल के निश्चित बोल को ठेका कहते हैं ।ठेके का बोल ,ताल की ताली , खाली, विभाग आदि को ध्यान में रखकर पूर्व निर्धारित एवं सर्व विदित होते हैं । ठेके का बोल उस ताल की पहचान होती है ।ठेके को टबला अथवा पखावज पर ही बजाय जाता है ।


सम :- किसी भी ताल की पहली मात्रा को सम कहते हैं ।अक्सर सम पर उस ताल की पहली ताली भी पड़ती है ।बोल चाहे किसी भी मात्रा से उठे उसकी समाप्ति सम पर ही होती है एवं सम से ही ठेका को पुनः पकड़ते हैं ।सम पर आने से ही कोई भी बोल सही माना जाता है ।अतएव किसी भी ताल का व्यवहार करते समय सम का ध्यान रखना अत्यंत महत्वपूर्ण है ।


ताली -खाली :- हर एक ताल के विभागों को सूचित करने के लिए ताली या खाली का प्रयोग किया जाता है । हाथ में ताल लगाते वक़्त सम के बाद जहां पर ताली देतें है उसे ताली और जहां हाथ को एक ओर हिला देतें है उसे खाली कहते हैं ।ताली खाली को भरी और फांक भी कहते है ।प्राचीन काल में इसे सशब्द क्रिया और निशब्द क्रिया भी कहा जाता था ।खाली का प्रयोग किया जाता है ।


लयकारी :- दृत ,मध्य और विलम्बित लय के इलावा भी लय के अनेक सक्षम भेद होते हैं जिन्हे लयकारी कहते हैं ।लयकारी के रूप निम्नलिखित है ।
1)ठाह-जब एक मात्रा काल में एक मात्रा का ही प्रयोग किया जाये तो उसे ठाह कहते हैं ।
2)दुगुन – जब एक मात्रा काल में दो मात्राओं का प्रयोग होता है उसे दुगुन कहते हैं ।
3)तिगुण – जब एक मात्रा काल में तीन मात्राओं का प्रयोग होता है तो उसे तिगुण कहते हैं
4)चौगुन -जब बेक मात्रा काल में चार मात्राओं का प्रयोग होता है तो उसे चौगुन कहते हैं 5)आड़ -जब एक मात्रा काल में डेढ़ मात्रा ,यथार्थ दो मात्रा काल में तीनं मात्रा का प्रयोग हो उसे आड़ लय कहते हैं ।
6)कुआड़ -जब एक मात्रा काल में सवा दो मात्रा या चार मात्रा काल में नौ मात्रा का प्रयोग किया जाये तो उसे कुआड़ी लय कहते हैं ।
7)बिआड -जब एक मात्रा काल में पौने दो मात्रा या चार मात्रा काल में सात मात्रा का प्रयोग किया जाये तो उसे बिआड लय कहते हैं ।


तिहाई :-किसी भी वर्ण समूह या छोटे बोल को जिसे तीन बार नाच कर सम पर आये उसे तिहाई कहते हैं ।अधिकतर तत्कार टुकड़े आदि तिहाई से समाप्त होते हैं ।तिहाई दो प्रकार की होती है :-
1)बेदम तिहाई -जब तिहाई के तीनों पल्लों को बिना रुके एक सा बोल दिया जाये तो उसे बेदम तिहाई कहते हैं ।
2)दमदार तिहाई -जब तिहाई के पल्लों के बीच में थोड़ी थोड़ी देर रुका जाये तो उसे दमदार
तिहाई कहते हैं ।


हस्तक :- ताल लय के साथ हस्त संचालन को हस्तक कहते हैं ।कथक नृत्य के विभिन्न घरानों में यह भिन्न तरीके से विकसित हुआ है ।हस्तक में कंधे से लेकर उँगलियों तक पूरे हाथ का संचालन किया जाता है ।इन हस्तकों से कोई अर्थ विशेष की अभिव्यक्ति नहीं होती ।यह टुकड़े, परन जैसे नृत्त तत्वों के प्रस्तुतिकरण में प्रयोग किया जाता है ।
सलामी :-सलामी का अर्थ है नमस्कार या प्रणाम करना । एक परिभाषा के अनुसार जब नृत्यकार तोड़े या टुकड़े को नाच कर सम पर नमस्कार या सलाम करने का भाव दिखाता था उसे सलामी कहा जाता है ।
एक परिभाषा यह भी कहती है की कत्थक नृत्य में रंगमंच पर जो तोडा ,टुकड़ा सर्वप्रथम नाचा जाता है वह सलामी होता है ।यह आवयशक नहीं है की अंत में नमस्कार का भाव दिखाया जाये ।
कत्थक नृत्य में सलामी के टुकड़े नामक बोलों का एक अलग समुदाय है ।इन टुकड़ों को अत्यंत वैज्ञानिक रूप से बनाया गया है क्यूंकि इनमे लयों के तीनों रूप को प्रयोग करके दिखा दिया गया है और इन टुकड़ों को चक्रदार ,फरमाइशी आदि रूप में भी परिवर्तित किया जा सकता है ।इसलिए इन टुकड़ों का अत्यंत महत्व है ।


आमद :-कत्थक नृत्य में ठाट के उपरांत नाचा गया पहला बोल आमद कहलाता है ।आमद कत्थक नृत्य का एक महत्त्वपूर्ण आंग है । परन जुडी आमद,परमेलु आमद ,आमद पेशकार ,आमद के भिन्न रूप है ।


तोडा:-नृत्य के वर्ण जैसे ता,थेई,तत, दिग आदि से बनी हुई तालबद्ध रचना जो कम से कम एक आवर्तन की हो, तोडा कहलाते है ।इन्हे ट्रोटकम, या टुकड़ा भी कहा जाता है
तोड़े में विभिन्न लयकारियाँ भी दिखाई जाती है ।


ताल :-नृत्य में समय को मापने के पैमाने को ताल कहते हैं । ताल मात्रायों का समूह है ।विभिन्न मात्रायों के समूह से भिन्न ताल बनते हैं ।जैसे एकताल, झपताल,आदि ।कभी कभी तालों में सामान मात्रा होने पर भी वह अलग होते है क्यूंकि उनमे मात्राओं के विभाजन और ताली खाली में भिन्नता होती है ।


लय:- गायन ,वादन तथा नृत्य में समय की गति को लय कहते है ।लय तीन प्रकार के होते हैं 1)विलम्बितब लय -जब लय बहुत धीमी हो उसे विलम्बित लय कहते हैं ।
2)मध्य लय -साधारण सहज गति को मध्य लय कहते हैं ।
3)द्रुत लय -जब लय तेज होती है तो उसे द्रुत लय कहते हैं ।


मात्रा :- संगीत में समय की सबसे छोटी इकाई को मात्रा कहते हैं ।मात्रायों के समूह से ताल बनती है ।साधारणतः एक सेकंड को एक मात्रा कहते हैं ।पर कलाकार अपने गीत या बोलों के अनुसार मात्रा के काल को निर्धारित करता है ।
2.संगीत पद्धतियां
संगीत तथा भारत की दो मुख्या संगीत पद्ध्यतियों की व्याख्या
संगीत में ताल ,लय, मात्रा ,विभाग आदि का स्पष्ट संकेत देते हुए बोलों को लिखने को ताल लिपि में लिखना कहते हैं ।प्राचीन कल में ताल लिपि में लिखे जाने की अनेक प्रणालियानं प्रचलित थी जिनमे से दो प्रमुख प्रणालियाँ है 1) भातखण्डे पद्धति एवं 2) विष्णु दिगंबर पद्धति |



एकताल का ठेका भातखण्डे पद्धति में :-
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12
धिन धिन |धागे तिरकिट | तू ना | क त्ता | धागे तिरकिट | धी ना |
x 0 2 0 3 4


एकताल का ठेका विष्णु दिगंबर पद्धति में
धिन धिन धा गे ति र कि ट तू ना क त्ता धा गे ति र कि ट धी ना
– – 0 0 υ υ υ υ – – – – 0 0 υ υ υ υ – –


1 + 5 9 11


=


3.तालों का पूर्ण परिचय
प्रचलित तालों का पूर्ण परिचय :-


1) तीनताल
मात्रा -16
विभाग -4
ताली -3
खाली -1
x 2 0 3
धा धिन धिन धा | धा धिन धिन धा | धा तिन तिन ता | धा धिन धिन धा
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16


2) झपताल


मात्रा -10
विभाग -4
ताली -3
खाली -1


x 2 0 3
धी ना | धी धी ना | ती ना | धी धी ना
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10


3)कहरवा


मात्रा -8
विभाग -2
ताली -1
खाली -1


x 0
धा गे ना ति | न क धि न
1 2 3 4 5 6 7 8



4)दादरा


मात्रा -6
विभाग -2
ताली-1
खाली-1


x 0
धा धी ना | धा ती ना
1 2 3 4 5 6



5)एकताल


मात्रा -12
विभाग -6
ताली -4
खाली -2


x 0 2 0 3 4
धिन धिन | धागे तिरकिट | तू ना | क त्ता | धागे तिरकिट | धी ना
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12



6)सूलताल


मात्रा -10
विभाग -5
ताली – 3
खाली -2


x 0 2 3 0
धा धा | धिन ता | किट धागे | ति ट कत | ग दी गन
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10



4.पिछले प्रश्न पत्रों से



पिछले प्रश्न पत्रों से चुने हुए सवाल



1. अच्छन महाराज –


अच्छन महाराज कलिका प्रसाद जी के तीनों पुत्रों में सबसे बड़े थे । इनका पूरा नाम जगन्नाथ प्रसाद था ।बचपन में दिया गया नाम अच्छे भैया बिगड़ कर अच्छन महराय पड़ गया । इनको अपनी नृत्य की शिक्षा अपने ताऊ बिंदादीन महाराज से प्राप्त हुई थी ।वे लम्बे समय तक नवाब रामपुर के दरबार में रहे ।फिर वे लौट कर लखनऊ में बस गए ।इनकी मृत्यु सन 1946 के लगभग लखनऊ में हुई थी ।


अच्छन महाराज बीसवीं सदी के नृत्य सम्राट माने जाते थे ।कथक नृत्य के भाव और ताल दोनों पक्षों पर इनका पूरा अधिकार था । वे अंग संचालन द्वारा बहुत ही सूक्षम बातें कह जाते थे जो की शब्दों से व्यक्त नहीं किया जा सकता था ।कठिन से कठिन लयकारी को बड़ी सरलता से दिखते थे । ठुमरी गाकर उसका भाव बताना इनकी विशेषता थी । नए नए टुकङे , परन की रचना भी ये तत्काल कर लेते थे । इनकी आँचल गत की निकासी प्रसिद्द थी ।
उन्होंने कृष्ण लीला सम्बन्धी बहुत से नृत्यों की रचना की ।
इनका स्वभाव बहुत ही सरल व क्रोध और गर्व रहित था ।इनकी मृत्यु पर संगीत जगत को बड़ा दुःख हुआ । इनके योग्य बेटे बिरजू महाराज वर्तमान काल में कथक नृत्य के प्रतिनिधि नृत्यकार हैं ।



2.लच्छू महाराज
लच्छू महाराज ,महाराज कालका प्रसाद जी के मंझले बेटे थे । इनका वास्तविक नाम बैजनाथ प्रसाद मिश्र था । इनकी नृत्य शिक्षा महाराज बिंदादीन ,कलिका प्रसाद व अच्छन महाराज द्वारा संपन्न हुई । वे 10 वर्ष के अल्प आयु से ही नृत्य प्रदर्शन
नृत्य प्रदर्शन करने लगे थे । कुछ समय के लिए वे रामपुर दरबार में रहे । इसके बाद वे बम्बई चले गए और फिल्मों के लिए नृत्य निर्देशन करने लगे । उन्होंने अनेक चलचित्रों में निर्देशन किया है और प्रत्येक में आशातीत सफलता मिली । इसके आलावा नूतन नृत्य निकट नाम से संस्था खोल कर स्वतंत्र रूप से नृत्य शिक्षा प्रदान करने लगे । सन 1972 में वो कत्थक केंद्र लखनऊ के निर्देशक नियुक्त हुए । 1957 में उन्हें राष्ट्रपति पदक से सम्मानित किया गया था।
1977 में इनकी मृत्यु लखनऊ में हुई ।
लच्छू महाराज एक कल्पनशील कलाकार थे । कत्थक शैली में आधुनिक ढंग के नृत्य नाटिका की रचना करने की दिशा में इन्होने महत्वपूर्ण योगदान दिया परंपरागत नृत्य में भी इन्होने अनेक प्रयोग किये थे जैसे ‘ धा तक थुँगा ‘ आमद को नाचते हुए उसमे राधा कृष्णा की छेड़ छाड़ का भाव दिखाना । भारतीय किसान ,गाँधी की अमर कहानी,आदि इनकी नृत्य रचनाये बहुत लोकप्रिय हुई ।



पढ़ंत का महत्व
पढ़त का तात्पर्य नृत्य के बोलो को ताल लगाकर बोलना है । कत्थक नृत्य में पढ़त का बहुत महत्व है । जब कभी भी नृत्यकार अपनी एकल व्यक्ति नृत्य प्रस्तुत करता है तब जो बोल प्रदर्शित करने जा रहा है उसे वो ताल लगाकर सुनाता है ताकि यह विदित हो जाए की बोल ताल लय के मान से ठीक है । इससे यह लाभ भी होता है की साथ देने वाले वादकगण को बोल की बारीकियां पता चल जाता है । दर्शकों पर इसका विशेष प्रभाव पड़ता है । बोल के अभिनय को देखने से पहले अगर वो बोल सुन लेते है तो वो बोल सम्बन्धी एक रूपरेखा बना लेते है और अधिक आनंद उठाते है । इतना महत्वपूर्ण होने की वजह से इसका अभ्यास अच्छी तरह करनी चाहिए ।



अभिनय दर्पण के अनुसार पात्र के गुणों का वर्णन :-


नृत्य में प्राय नर्तकी को ही पात्र मन गया है ।आचार्य नंदिकेश्वर ने अभिनय दर्पण में नर्तकी के मुख्या 10 गुण बताये है । जैसे की :- चपलता स्थिरता भ्रामरी में प्रवीणता ,तीक्षण स्मरण शक्ति .कला में श्रद्धा .गायन में कुशलता ,सुदृष्टि ,सहिष्णुता आदि । इन गुणों से युक्ता पत्र को ही विधि पूर्वक नृत्य करना चाहिए ।
नर्तक के कुछ वर्त्तमान गुणों पर प्रकाश डाला जा रहा है :-
1.शारीरिक सौंदर्य – यह एक ऐसा आधार भूमि है जिस पर नर्तकी की सफलता बहुत हद तक आधारित है । सुडौल और आकर्षिक शरीर ,साधारण कद, बड़े नेत्र ,पतले होंठ ,लम्बी और पतली उँगलियाँ ,आदि सौंदर्य को बढ़ाते है ।
2.स्वस्थ शरीर – पात्र को निरोगी एवं स्वस्थ होना चाहिए । बिना स्वस्थ शरीर के नृत्य का अभ्यास ठीक प्रकार से नहीं हो सकता । अतएव यह अत्यंत जरुरी है ।
3.अच्छी शिक्षा – नृत्यकार को नृत्य की अच्छी शिक्षा मिलनी चाहिए । गुरु अच्छा नृत्यकार हो और उसे सीखाने में रूचि हो ।
4.उचित अभ्यास – नृत्यकार को अपनी सीखी हुई चीज़ों का बहुत अच्छा अभ्यास होना चाहिए । एक ओर उसे नृत्य के अवयवों पर और दूसरी ओर अन्या अंगों पर पूर्ण नियंत्रण हो सके ।
5.लयकार – नृत्यकार को अच्छा लयकार होना चाहिए क्यूंकि नृत्य में लय का बड़ा महत्व है ।
हर एक बोल सही स्थान से उठ कर सैम पर आना चाहिए ।
6.मादक वास्तु का सेवन नहीं – सफल नृत्यकार को किसी भी किस्म के मादक वास्तु का प्रयोग नहीं करना चाहिए जिससे की उन्हें आदत पद जाये और उनका नृत्य पर दुष्प्रभाव पड़ने लगे ।
7. आत्मविश्वास – रंगमंच पर नृत्य प्रस्तुत करने के लिए आत्मविश्वास का होना महत्त्वपूर्ण है । अच्छी शिक्षा और अभ्यास आत्मविश्वास को बढ़ाने में योगदान देते है ।
8.वाणी की स्पष्टता – नृत्यकार की वाणी स्पष्ट हो तो जब वो बोल आदि पड़ता हो तो दर्शक उसे आसानी से समझते हैं ।
एक सफल नृत्यकार बनने के लिए इन उपर्युक्त बातों का ध्यान रखना चाहिए ।



हस्त मुद्रा-


भारतीय नृत्यों में हाथ या हाथों की भंगिमा को मुद्रा कहते हैं । प्राचीन भारतीय नृत्य शास्त्र में मुद्रा को हस्ताभिनय भी कहा गया है । भारत मुनि ने हस्ताभिनय को तीन श्रेणियों में विभाजित किया है -असंयुक्त हस्त,संयुक्त हस्त और नृत्त हस्त ।


असंयुक्त हस्त -एक हाथ से जो स्तिथि बनती है उसे संयुक्त हस्त कहते है ,जैसे पताका ,अर्धचंद्र आदि ।नाट्यशास्त्र के अनुसार 24 असंयुक्त हस्त है ।


संयुक्त हस्त- दोनो हाथों के संयोग से जो स्तिथि बनती है उसे संयुक्त हस्त कहते है। नाट्यशास्त्र के अनुसार 13 प्रकार के संयुक्त हस्त है ।


नृत्त हस्त – नृत्त में प्रयोग होने वाली मुद्राएं नृत्त हस्त कही जाती है । नाट्यशास्त्र के अनुसार 27 नृत्त हस्त है ।
अभिनय दर्पण के अनुसार कुल 32 असंयुक्त हस्त, 19 संयुक्त हस्त, मुद्राएं हैं ।


1. पताका- इस मुद्रा का प्रयोग निशा ,नदी,घोडा,वायु,शयन,झंडा, सूर्य ,राजा, महल ,शीत, ध्वनि, शपथ लेना आदि को समझने के लिए प्रयोग किया जाता है ।





2.कर्तरीमुख – यह मुद्रा ब्राह्मण ,पाप,शुद्धता ,ठोकर खाना, मरण ,पतन ,रुदन, आदि भाव बताता है ।




3. मयूर – इसके द्वारा मयूर की गर्दन बतलाना, लता, वमन, ललाट तिलक,नदी का बहाव, बालों की लत सुलझाना आदि दर्शाया जाता है ।




4.अराल – यह हस्त मुद्रा वृक्ष ,मुर्ख ,दुष्ट,विषपान, अमृत ,आदि के भाव दर्शाता है।




अंग ,प्रत्यंग, उपांग का वर्णन :-


अंग ,प्रत्यंग, एवं उपांगों का प्रयोग हर एक नृत्य में किया जाता है । अभिनय दर्पण के अनुसार इन्हे आंगिक अभिनय के साधन भी कहा जाता है । आंगिक अभिनय के अंतर्गत शरीर के विभिन्न हिस्सों का सञ्चालन किया जाता है । अभिनय के दृष्टि से शरीर के अवयवों के नाम है अंग, प्रत्यंग ,और उपांग ।
1. अंग – नृत्य में मनुष्य के शरीर के 6 अंग माने गए है -सिर, हाथ ,बगल ,कमर पैर और छाती । कुछ लोग गर्दन को भी अंग मानते है ।
2.प्रत्यंग – जिन हिस्सों को हम नृत्य करते समय सरलता से मोड़ पाए प्रत्यंग कहलाते हैं ।
यह 6 तरह के होते हैं । यह है – गर्दन ,कन्धा, बांह ,जंघा ,पीठ ,और पुष्टिका ।कुछ विद्वानों के अनुसार कलाई, पंजा, हाथ की कुहनी ,और पैर के घुटने भी प्रत्यंग कहलाते हैं ।
3. उपांग -प्रत्येक अंग के छोटे छोटे अवयवों को उपांग कहते हैं । हर एक अंग के अलग अलग उपांग होते हैं । जैसे की सिर या शिर के 12 उपांग है -नेत्र ,भौं ,आँख की पुतली, पालक,होठ ,जबड़ा ,दांत ,जीभ, मुख नाक गाल और ठुड्डी । इसी प्रकार अन्य अंगों के भी उपांग होते है ।
अंग ,प्रत्यंग, उपांगों के परिचालन के प्रकारों का वर्णन नृत्य शास्त्रों में किया गया है ।इनका ज्ञान क्रियात्मक नृत्य के विद्यार्थियों के लिए अत्यंत आव्यशक है ।


नृत्य करते समय किन किन बातों का ध्यान रखना चाहिए :-


कत्थक नृत्य प्रदर्शन के लिए कुछ बातें अत्यंत महत्वपूर्ण है। नृत्य को दर्शकों के लिए आनंदमय बनाने के लिए कई पहलुओं पर ध्यान रखना चाहिए ।
1. ताल लय का ज्ञान – यह एक अहम् पहलु है एवं नृत्य का सठीक होना इसपर निर्भर करता है ।
बोल , टुकड़े आदि सभी सही मात्रा से शुरू एवं सही मात्रा पर समाप्त होना चाहिए । नृत्य करते वक़्त ले का भी विशेष ध्यान रखना चाहिए । विभिन्न लयकारियों को इस्तमाल करते हुए ताल लय बद्ध नृत्य ही अच्छा शास्त्रीय नृत्य कहलाता है ।
निर्वाय
2.रास और भाव – रास और भाव का बड़ा महत्व है । बिना इनके नृत्य निरर्थक है । दर्शकों में रसमय अवस्था उत्पन्न करना कलाकार का लक्ष्य होता है और जो कलाकार जितनी जल्दी इस अवस्था को उत्पन्न करने में समर्थ हो, वह उतने ऊँचे दर्जे का कलाकार होता है ।


3.अंग संचालन- रस भाव को उत्पन्न करने के लिए और नृत्य में एक सार्थकता देने के लिए अंग संचालन का प्रयोग होता है । हर मुद्रा ,हर अंग का परिचालन एक विशेष अर्थ के लिए प्रयोग होता है । अतएव इनका ज्ञान होना अनिर्वाय है ।


4. रूप सौंदर्य – भारतीय नृत्य में रूप सज्जा का बड़ा महत्व है । नृत्यकार का वेशभूषा ,एवं साजसज्जा अच्छी होनी चाहिए ताकि रंगमंच पर नर्तक का व्यक्तित्व उभर कर आये । नर्तक के साथ साथ रंगमंच का भी ध्यान रखना चाहिए । रंगमंच पर प्रकाश का उपयोग और रंगमंच की सज्जा भी अत्यंत महत्वपूर्ण है ।


5. अच्छी शिक्षा – तालीम एवं शिक्षा बहुत ही ज़रूरी है । अभ्यास से ही नृत्यकार अच्छी नृत्य प्रदर्शन कर सकता है ।


6.घुंघरू एवं सह्वदयों का प्रयोग – कथक नृत्य में घुंघरुओं का बड़ा महत्व है । सही घुंघरुओं की अव्वाज़ से ही नृत्य में जान आती है । इसके साथ तबला ,हारमोनियम आदि वाद्यों का प्रयोग नृत्य को संगीतमय बनाने में मदद करता है ।


7.क्रम – नृत्य प्रदर्शन सही क्रम में ही होना चाहिए ताकि दर्शकों को आनंद आ सके । नृत्य का क्रम कई पहलुओं को ध्यान में रखते हुए बनायीं गयी है । अगर हम क्रमानुसार न चले तो संभव है कि शुरुआत में द्रुत लय नाचने के बाद विलम्बित का मजा चकनाचूर हो जाये ।
इन बातों का ख्याल रखना नृत्य करते समय जरुरी है ।



प्रायोगिक पाठ्यक्रम से
1.तीनताल का आमद ,2 तत्कार , चक्रदार टुकड़ा ,तोडा , कवित्त ,को ताल लिपि में लिखने का अभ्यास
2.झपताल का तिहाई , सलामी, आमद,टुकड़े, तोड़े को ताल लिपि में लिखना
3.तालों को दुगुन एवं चौगुन लय में लिखने का ज्ञान
4.विष्णु दिगंबर पद्धति में भी बोलो को लिखने का कौशल




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Comments Lavika on 19-03-2022

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