Islam Ka Uday इस्लाम का उदय

इस्लाम का उदय



GkExams on 03-02-2019


इस्लाम धर्म के उदय के पूर्व अरबवासी मूर्तिपूजक थे । वे अनेक कबीलों में बंटे हुए थे ।प्रत्येक कबीले का एक नेता (सरदार) था । मुहम्मद साहब का जन्म (570-632 र्इ)हुआ था । उन्होंने इस्लाम नामक नए धर्म की शिक्षा दी । इस धर्म ने अरब लोगों के अतिरिक्त,विश्व के अन्य भागों में रहने वालों के धार्मिक राजनीतिक व सामाजिक जीवन को परिवर्तित करदिया । इसकी धार्मिक पुस्तक कुरान है । प्रत्येक मुसलमान से अपेक्षा की गर्इ कि वह दिन में पांचबार नमाज पढ़े, रमजान के मास में रोजा (उपवास) रखे, दान करे और यदि सम्भव हो तो हज(तीर्थ-यात्रा) के लिए मक्का जाए । कुरान में शराब पीना, जुआ खेलना और सूअर का मांस खानावर्जित है ।

मुहम्मद साहब द्वारा प्रचारित इस्लाम धर्म को समझना और उसका पालन करना सरला था।शीघ्र ही यह धर्म सारे अरब में फैल गया और इसने लड़ाकू प्रवृत्ति वाले कबीलों को संगठितकिया। सन् 632 र्इ. में मुहम्मद साहब की मृत्यु के बाद मुसलमानों को धार्मिक और राजनीतिकनेतृत्व प्रदान करने का उत्तरदायित्व खलीफा को मिल गया ।

खलीफा अरबी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ नायब । मुहम्मद साहब के उत्तराधिकारियोंको यह पदबी दी गर्इ ।

6़32-661 र्इ. के मध्य चार खलीफा हुए । खलीफाओं के काल में इस्लाम धर्म का तेजी सेप्रसार हुआ । शीघ्र ही इस्लाम धर्म एक बड़ी राजनीतिक सत्ता बन गया । अरब वालों की सेनाने पश्चिमी एशिया, जार्डन, सीरिया, र्इराक तुर्की और र्इरान पर विजय प्राप्त की । उन्होंने उत्तरीअफ्रीका और दक्षिणी यूरोप के भी कुछ भाग विजय किए । अरब वालों का जहाजी बेड़ा 636 र्इ मेंबम्बर्इ के निकट आया । उमैयद वंश 661 से 750 र्इ. तक सत्ता में रहा । उन्होंने खिलाफत कोस्थिरता और सम्पन्नात प्रदान की । उन्हीं के नेतृत्व में अरब के सैनिकों ने व्यापार के एक प्रमुखमार्ग पर अधिकार किया । यह मार्ग सिल्क मार्ग के नाम से प्रसिद्ध था और चीन तक जाता था।इससे ही भारत पर अनगिनत आक्रमण प्रारम्भ हुआ । यह आक्रमण र्इसा की सातवी शताब्दी केमध्य भारत की उत्तर पश्चिम सीमा पर हुए थे । उन्होंने आधुनिक अफगानिस्तान के दक्षिणी भागपर अधिकार कर लिया था और अब अरब वाले सिंध विजय के लिए सोच रहे थे अर्थात् उनकीदृष्टि सिंध पर थी ।

सातवीं शताब्दी में अरब में पैगम्बर मुहम्मद साहब द्वारा इस्लाम धर्म की स्थापना हुर्इ थी औरउन्होंने ही इसका प्रचार किया । इस धर्म ने अरब के विभिन्न कबीलों को संगठित किया और शीघ्रही वे एक बड़ी राजनीतिक सत्ता बन गए । उमैयद खलीफाओं के नेतृत्व में इस्लाम धर्म तेजी सेफैला । खलीफाओं ने व्यापार को प्रोत्साहन दिया और इसी संदर्भ में अरब के मुसलमान व्यापारीर्इसा की सातवीं शताब्दी से भारत आने लगे ।

सिंघ विजय 712 र्इ.

आठवीं शताब्दी का प्रारम्भिक काल समैयद वंश की सत्ता का चरमोत्कर्ष काल था । उन्होंनेइतना बड़ा मुस्लिम राज्य स्थापित किया जितना पहले कभी नहीं रहा था परन्तु वे अभी भी इस्लामको पूरे उत्साह के साथ दूर-दूर तक फैला रहे थे । वे भारत की धन-सम्पदा की ओर भी आकर्षितहुए थे । भारत के धन-धान्य व समृद्धि की कहानियां अरब व्यापारियों और नाविकों द्वारा उन तकपहुंच चुकी थीं । आक्रमण की आवश्यकता उस समय हुर्इ जब लंका के राजा द्वारा मुस्लिम राज्यके पूर्वी प्रान्त हाकिम हज्जाज बिन युसूफ को भेजे गए उपहारों से लदे आठ जहाजों को सिंध केसमुद्री लुटेरों ने लूट लिया । जब हज्जाज ने सिंध के शासक दाहिर से क्षति पूर्ति के लिए कहातो दाहिर ने कह दिया कि समुद्री लुटेरों पर उसका कोर्इ नियंत्रण नहीं है, इसलिए वह न तो उन्हंदण्ड दे सकता है और न क्षति पूर्ति कर सकता है । उसके उत्तर से संतुष्ट न होकर हज्जात नेसिंघ के विरूद्ध दो सैनिक अभियान भेजे परन्तु दोनों ही अभियान असफल रहे । इन असफलताओंके पश्चात हज्जाज ने मुहम्मद बिन कासिम के नेतृत्व में एक विशाल सेना सिंघ पर आक्रमण करनेके लिए भेजी ।

घटनाएं -

मुहम्मद बिन कासिम 711-712 र्इ. में सिंध आया और उसने समुद्र तट पर स्थित देवस कोघेर लिया । उसने शान्तिप्रिय बौद्ध लोगों को सरलता पूर्वक विजय कर लिया । तत्पश्चात् मुहम्मदबिन कासिम सिंध नदी को पार कर आगे बढ़ा । रावार नामक स्थान पर दाहिर ने शत्रु की सेनाका मुकाबला किया । प्रारंभ में दाहिर की विजय के लक्षण दिखार्इ दे रहे थे परन्तु एक घटना नेयुद्ध का पासा पलट दिया । दाहिर के हाथी को एक तीर लगा और हाथी दाहिर को गिरा करभाग गया । दाहिर के दिखार्इ न देने पर सेना ने समझा कि दाहिर भाग गया और सैनिकहतोत्साहित होकर भागने लगे । दाहिर पकड़ा गया और उसको निर्दयता पूर्वक मार दिया गया ।मुहम्मद बिन कासिम धीरे-धीरे आगे बढ़ा और उसने ब्राह्मणवाद सहित सिंध के अनेक क्षेत्रों परविजय प्राप्त कर ली ।

कासिम के सिंध आक्रमण के प्रभाव

कासिम की विजय के परिणाम स्वरूप सिंध के लोगों का आर्थिक जीवन छिन्न-भिन्न होगया । सिंध की अधिकांश जनता व व्यापारी सिंध से चले गए । मुहम्मद बिन कासिम ने निचलेपंजाब (पंजाब का निचला भाग) सहित सिंध का अधिकांश भाग विजय कर लिया था और उसनेविजित प्रदेश में शासन व्यवस्था स्थापित की । वह तीन वर्ष से कुछ अधिक समय तक ही सिंधमें रहा क्योंकि अचानक ही उसे नए खलीफा ने वापिस बुला लिया था । दो वर्ष बाद ही सिंध कीजनता ने अरब वालों के विरूद्ध विरोद्र कर अपनी स्वतंत्रता प्राप्त कर ली । इस प्रकार सिंध विजयस्थायी सिद्ध नहीं हुर्इ । कुछ इतिहासकारों ने कहा कि सिंध आक्रमण का कोर्इ परिणाम नहींनिकला ।

तथापि सिंध आक्रमण के कुछ प्रभावी एवं निश्चित परिणाम हुए । अनेक अरबवासी सिंध मेंबस गए और उन्होंने वहीं की जनता से संबंध स्थापित कर लिए । दसवीं शताब्दी में इब्न हाकुलनामक भूगोल वेत्ता और यात्री ने देखा कि सिंध में अरबी और सिंधी दोनों ही भाषाएं बोली जातीथी और हिन्दू व मुसलमान जनता में सद्भावना थी । आज भी सिंध में मुसलमानों का बाहुल्य है।जिनमें अधिकांश व्यापारी है । सिंधी भाषा अरबी लिपि में लिखि जाती है ।आपसी सम्पर्क से अरब वालों ने भारतीय संस्कृति से बहुत कुछ सीखा । उन्होंने दर्शनशास्त्र, खगोल शास्त्र, गणित, औषधि विद्या, रसायन शास्त्र और विषयों का ज्ञान प्राप्त किया ।इस विजय के फलस्वरूप भारत का पश्चिमी देशों से व्यापार बढ़ा । बारहवीं शताब्दी तक इस प्रदेशमें अरबवासियों (व्यापारियों) का स्थल और समुदी्र मार्ग पर अधिकार बना रहा ।

शाहबुददीन मुहम्मद गोरी का आगमन-

शाहबुद्दीन मुहम्मद गोरी के भारत आगमन से पूर्व मध्य-एशिया में होने वाली राजनीतिकघटनाओं और परिवर्तनों को समझ लेना आवश्यक है । महमूद गजनबी की मृत्यु 1030 र्इ. को हुर्इथी। उसकी मृत्यु के बाद मध्य-एशिया में सलजुक तुर्की साम्राज्य का उदय हुआ । महमूद केनिर्बल उत्तराधिकारी उनका सामना न कर सके । गजनी साम्राज्य धीरे-धीरे गजनी और पंजाबतक सीमित रह गया और वह भारत के लिये भय का कारण नहीं रहा था । सलजुक साम्राज्य केपतन के बाद मध्य-एशिया में दो शक्तिशाली राज्यों का उदय हुआ ये राज्य थे- र्इरान काख्वारज्म राज्य और उत्तर पश्चिमी अफगानिस्तान के गोरी में गोरी साम्राज्य । गोरी गजनबीसाम्राज्य के सामन्त रह चुके थे । उन्होंने गजनबी साम्राज्य की कमजोरियों का लाभ उठाकर अपनीस्वतंत्रता की घोषणा कर दी थी ।

1173 र्इ. में शाहबुद्दीन मुहम्मद गोरी (1173-1205 र्इ.), जिसे मुर्इजदुद्ीन बिन साम भी कहाजाता है, गोर के राजसिंहासन पर बैठा । गोर साम्राज्य इतना शक्तिशाली नहीं था कि वहख्वारजम साम्राज्य की बढ़ती शक्ति का सामना कर पाता । दोनों के मध्य खुरासान झगड़े काकारण था और अन्त में ख्वारज्म ने खुरासान विजय कर लिया । गोर वालों ने समझ लिया किउन्हें अब मध्य एशिया में कुछ नहीं मिलने वाला है । गोर वाले अपने साम्राज्य विस्तार कीमहत्वाकांक्षा को भारत में विस्तार कर पूरी करने के लिए विवश हुआ ।

मुहम्मद गोरी का उद्देश्य लूटमार करने की अपेक्षा भारत में अपना एक स्थायी साम्राज्यस्थापित करना था । उनके आक्रमण सुनियोजित थे और जब भी उसने कोर्इ प्रदेश जीता तो उसनेवहां अपनी अनुपस्थिति में विजित प्रदेश की व्यवस्था के लिए अपना प्रतिनिधि छोड़ा । उसकेआक्रमणों का ही परिणाम था कि उसने विन्धय पर्वत की उत्तरी प्रदेश में तुर्की सल्तनत की स्थापनाकी ।

पंजाब और सिघ की विजय

मुहम्मद गोरी ने भारत पर प्रथम आक्रमण 1175 र्इ. में किया । उसने मुल्तान पर आक्रमणकर उसे वहां के शासक से मुक्त किया । इस युद्ध में ही उसने भट्टी राजपूतों को पराजित करउच्छ पर अधिकार किया । वह उच्छ और मुल्तान में अपने हाकिम नियुक्त कर गजनी वापिस चलागया । तीन वर्ष बाद 1178 र्इ. में उसने गुजरात पर आक्रमण किया परन्तु चालुक्य राजा भीमदेवने मुहम्मद गोरी को अहिन्लवाड़ा के युद्ध में बुरी तरह पराजित किया । परन्तु इस पराजय सेमुहम्मद गोरी हताश नहीं हअु ा । उसने गजनबी के प्रदेश पजं ाब पर आक्रमण किया जिसकेफलस्वरूप उसने 1179-80 में पेशावर और 1186 र्इ. में लाहौर विजय कर लिए । इसके पश्चात्उसने स्यालकोट और देवल विजय किए । इस प्रकार 1190 र्इ. में मुल्तान, सिंघ और पंजाब कोप्राप्त कर मुहम्मद गोरी के लिये दिल्ली और गंगा घाटी का मार्ग खुल गया था ।

महमूद गजनबी के भारत आक्रमण

महमूद गजनबी के आक्रमणों की चर्चा करने से पूर्व पश्चिमी और मध्य एशिया की घटनाओंऔर परिवर्तनों का अध्ययन कर लेना उपयुक्ता होगा ।

750र्इ. में उमैयद वंश के खलीफओं की शक्ति समाप्त होने पर सत्ता अब्बासी वंश के हाथमें आ गर्इ थी । नवीं शताब्दी के अन्तिम चरण में अब्बासी वंश की सत्ता घटने लगी थी । नयेशासकों ने सुल्तान का पद धारण किया और अधिकाधिक प्रदेश अब्बासी सत्ता से संबंध विच्छेदकर स्वतंत्र होने लगे । इनमें से ही समानी शासक थे । इनका राज्य ट्रांस आकिसयाना, खुरासानऔर र्इरान के कुछ भागों पर था । समानी गवर्नरों में अलप्तगीन नामक एक तुर्की दास था । बादमें अलप्तगीन ने एक नए राज्य की स्थापना की जिसकी राजधानी गजनी थी महम्मूद गजनबी 998र्इ. में गजनी का शासक बना । उसकी सबसे बड़ी महत्वाकांक्षा थी, गजनी को मध्य एशिया में एकशक्तिशाली राज्य बनाना जिसको पूरा करने के लिए ही महमूद गजनबी ने भारत पर आक्रमण किएथे । इन आक्रमणों का उद्देश्य धन एकत्र करना था । इस ध्न से ही वह मध्य-एशिया में अपनेविशाल साम्राज्य को संगठित कर सकता था । उसकी भारत में राज्य स्थापना की कोर्इ इच्छा नहींथी ।

जिस समय मध्य-एशिया में उपरोक्त घटना चक्र चल रहा था उसी समय उत्तर-भारत मेंछोटे-छोटे राज्यों का युग आरम्भ हुआ था । यह राज्य सदा ही परस्पर लड़ते रहते थे । जब इनराज्यों पर उत्तर-पश्चिम की ओर से आक्रमण हुआ तो यह अपनी रक्षा न कर सके ।?महमूद ने 1000-1026 र्इ. के बीच भारत पर 17 आक्रमण किए । उसने प्रारम्भ में पूर्वीअफगानिस्तान और पंजाब के हिन्दू शाही राज्य पर आक्रमण किए । जब से गजनी स्वतंत्र राज्यके रूप में उभरा था तभी से हिन्दू शाही शासकों ने इसे भय का कारण समझा था ।

तराइन का प्रथम युद्ध (1191 र्इ.)

मुहम्मद गोरी के पंजाब विजय करने और गंगा घाटी की ओर बढ़ने के कारण उसकापृथ्वीराज चौहान से प्रत्यक्ष संघर्ष हुआ । वह गोरी का प्रबल शत्रु था । यह राजस्थान केछोटे-छोटे राज्य तथा दिल्ली विजय कर चुका था और वह पंजाब तथा गंगा घाटी में बढ़ना चाहताथा । इसलिये दोनों महत्वाकांक्षी शासकों में युद्ध होना अनिवार्य था । भटिंडा पर दोनों ही अपनाअधिकार मानते थे । इसे ही लेकर दोनों में संघर्ष प्रारम्भ हुआ । तराइन के प्रथम युद्ध 1191 र्इमेंगोरी की सेना बुरी तरह पराजित हुर्इ और मुहम्मद गोरी बहुत ही कठिनार्इ से अपने प्राण बचापाया । पृथ्वीराज ने भटिंडा विजय कर लिया परन्तु उसने वहां सैनिक छावनी नहीं बनार्इ और नउसने यहां से गोर वालों को निकाला । इससे मुहम्मद गोरी को शक्ति अर्जित करने केा अवसरमिल गया और 1192 र्इ. में उसने दुसरी बार भारत पर आक्रमण किया ।

तराइन का दूसरा युद्ध (1192 र्इ.)

इस युद्ध के बाद ही भारतीय इतिहास में बदलाव आया । गोरी ने इस युद्ध के लिए पूरीतरह तैयारी की थी । शायद पृथ्वीराज चौहान ने भी अनुभव कर लिया था कि गोरी का आक्रमणकोर्इ आकस्मिक घटना नहीं था वरन् सुनियोजित आक्रमण था इसलिये उसने उत्तर भारत के सभीराजाओं को संगठित होकर शत्रु का मुकाबला करने का आव्हान किया । बहुत से राजाओं ने अपनीसेनाएं उसकी सहायता के लिए भेजी तथापि कन्नौज के राजा जयचंद ने कोर्इ ध्यान नहीं दिया,और वह चुपचाप बैठा रहा । एक बार फिर तराइन के मैदान में राजपूतों और तुर्की सैनिकों कामुकाबला हुआ । भारतीय सैनिक संख्या में अधिक थे परन्तु तुर्की सेना का संगठन और संचालनबेहतर था । युद्ध मुख्य रूप से घुड़सवारी के मध्य था । भारतीय सैनिक तुर्की घुड़सवारों के संगठनकुशलता और तेज गति का मुकाबला नहीं कर सके । बहुत से सैनिक मारे गए । पृथ्वीराज बचतो गया परन्तु सरस्वती के समीप पकड़ा गया । तुर्की सेना ने हांसी, सरस्वती और समाना के गढ़विजय कर लिए । इसके पश्चात् उन्होंने अजमेर भी विजय कर लिया परन्त ु पृथ्वीराज को कंछुसमय तक अजमेर पर शासन करने दिया गया । कुछ समय बाद उसे “ाडयंत्र रचने के आरोप मेंमृत्युदण्ड दे दिया गया और उसका स्थान उसके पुत्र को दे दिया गया । पृथ्वीराज के भार्इ केविद्रोह के कारण अजमेर पृथ्वीराज के बेटे के हाथ से निकल गया । तुर्की सेना ने पुन: अजमेरविजय किया और यहां तुर्की सेना नायक रखा ।



तराइन का दूसरा यद्धु भारतीय इतिहास में महत्वपूर्ण है । प्रथम तो महु म्मद गोरीका अधिकार क्षेत्र दिल्ली से दूर नहीं रहा था । दिल्ली के राजपूत शासक को हटा कर गंगा घाटीकी ओर भावी गतिविधियों का केन्द्र बनाया गया । इस प्रकार दिल्ली और पूर्वी राजस्थान तुर्कीराज्य में शामिल हो गए थे । दूसरे तुर्की के विरूद्ध संगठित संघर्ष का अन्तिम अवसर था । इसके बाद मुहम्मद गोरी औरउसके सेना नायकों की व्यक्तिगत चुनौतियों का सामना करना पड़ा, परन्तु उन्हं संगठित मुकाबलेका सामना नहीं मिला ।

तराइन के युद्ध के बाद मुहम्मद गोरी भारतीय मामलों का उत्तरदायित्व अपने विश्वसनीयदास कुतुबुद्दीन ऐबक को सौप कर गजनी चला गया । मुहम्मद गोरी 1194 र्इ. में एक बार फिरभारत आया । वह 50,000 घुड़सवार लेकर यमुना नदी पार कर कन्नौज की ओर बढ़ा । उसनेकन्नौज के समीप चन्द्रावार नामक स्थान पर कन्नौज के राजा जयचन्द्र को बुरी तरह पराजितकिया । इस प्रकार तराइन और चन्द्रावर के युद्ध के बाद उत्तर भारत में तुर्की राज्य की स्थापनाहुर्इ । 1205 र्इ. में मुहम्मद गोरी की मृत्यु के बाद कुतबुद्दीन ऐबक ने उसके भारतीय विजित प्रदेशोंका उत्तरदायित्व संभाला ।

मध्य एशिया की राजनीतिक परिस्थितियों न शाहबुदद्ीन मुहम्मद गोरी कोभारत की ओर बढ़ने के लिए विवश किया । उसका उद्देश्य केवल लूटमार कर धन एकत्र करनानहीं था, वरन् वह भारत में राज्य स्थापित करना चाहता था । वह अन्हिलवाड़ा और तराइन केप्रथम युद्ध में पराजित हुआ था तथापि राजपूतों के सत्ता के लिए परस्पर संघर्ष ने उसे तराइन केदूसरे युद्ध में सफलता प्राप्त करना सरल कर दिया ।

मामलुक सुल्तान

कुतुबुद्दीन ऐबक से मामलुक सुल्तानों का युग आरम्भ होता है । मामलुक अरबी भाषा काशब्द है जिसका अर्थ है अपनाया हुआ । सैनिक सेवा के लिए लगाए गए तुर्की दासों को निजीयाआर्थिक कार्यो पर लगाए गए दासों से अलग करने के लिए इस शब्द का प्रयोग किया गया था।मामलुक सुल्तानों ने 1206 से 1290 र्इ. तक शासन किया । इन सुल्तानों की संख्या 10 थी । वेकुतुबुद्दीन ऐबक, शमशुद्दीन अल्तमश और गयासुद्दीन बलबन के वंशज थे । इस भाग में हमकवे ल उन चार शासकों का अध्ययन करेंग,े जिन्हांने े सल्तनत के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दियाथा ।

कुतुबु्दीन ऐबक (1206-1210 र्इ.)

कुतुबुद्दीन ऐबक एक तुर्की दास था । वह अपने परिश्रम के कारण मुहम्मद गोरी की सेनामें उच्च पद पर पहुंचा था । भारत में विजय और राज्य विस्तार का समस्त कार्य 1192-1205 र्इकेसमय कुतुबुद्दीन ऐबक ने ही किया था । मुहम्मद गोरी की मृत्यु के बाद कुतुबुद्दीन ऐबक नेभारत में अपनी स्थिति सुदृढ़ की । वह भारत में प्रथम तुर्की सुल्तान बना और इस प्रकार उसने एकस्वतंत्र राज्य की स्थापना की ।

कुतुबुद्दीन ऐबक को अनेक समस्याओं और कठिनाइयों का समाना करना पड़ा । नर्इस्थापित तुर्की सल्तनत को आक्रमणों और विद्रोहों का भय था । गजनी का शासक यल्दोज दिल्लीपर अपना अधिकार जता रहा था । सुल्तान और उच्छ का गवर्नर नासिरूद्दीन कुबाचा और पंजाबका अलीमदेंन खां स्वतंत्रा के स्वप्न देख रहे थे । स्थानीय राजाओं ने विद्रोह किए । ऐबक ने अपनीसभी शत्रुओं को शक्ति और समझौतों की नीति के बल पर विजय किया । उसने यल्दोज कोपराजित किया जो गजनी से दिल्ली की ओर चल दिया था ऐबक ने गजनी पर कब्जा किया, परन्तुजब यल्दोज गजनी में वापिस आया तो ऐबक लाहौर वापिस आ गया और उसने लाहौर को अपनीराजधानी बनाया । इसके पश्चात् दिल्ली सल्तनत गजनी से अलग हो गर्इ । इससे दिल्ली मध्यएशिया की राजनीति में पड़ने से बच गर्इ । यह अब अस्थायी था । शत्रुओं को पूर्ण रूप से दमनकरने का कार्य योग्य उत्तराधिकारी सल्तनत के लिए रह गया ।

अल्तमश इल्तुमिश (1210-1236 र्इ.)

कुतुबुद्दीन ऐबक की मृत्यु के बाद तुर्की अमीरों ने उसके बेटे आराम शाह को गद्दी परबैठाया । परन्तु वह अयोग्य और निर्बल सिद्ध हुआ । ऐबक के योग्य दामाद अल्मश ने दिल्ली केतुर्की अमीरों की सहायता से उसे गद्दी से उतार दिया और स्वयं सुल्तान बना । इस प्रकारउत्तराधिकारी नियम के अनुसार पिता की मृत्यु के बाद पुत्र को गुद्दी देने की प्रथा को आरम्भ मेंही रोक दिया गया । अल्तमश ने 1210 से 1236र्इ. तक शासन किया । दिल्ली सल्तनत कोसंगठित करने का श्रेय अल्तमश को ही प्राप्त है ।

जिस समय अल्तमश गद्दी पर बैठा उसे सब ओर समस्याएं ही दिखार्इ दी । प्रान्तीयहाकिम सल्तनत से सम्बन्ध विच्छेद कर रहे थे । यल्दोज, कुबाचा और अलीमर्दन खां भी विरोधीहो रहे थे । जालौर और रणथम्भोर के सरदार, ग्वालियर और कालिंजर के साथ मिलकर अपनीस्वतंत्रता की घोषणा कर रहे थे । इसके अतिरिक्त चगेंज खां के नेतृत्व में मंगोलों की बढ़ती शक्तिकी सल्तनत उत्तर पश्चिमी सीमा के लिए भय का कारण बन रही थी ।

अल्तमश ने दृढ़ निश्चय पूर्वक अपनी स्थिति को सुदृढ़ बनाना आरम्भ किया । उसने यल्दोजको पराजित कर उसकी हत्या कर दी । उसने एक अन्य अभियान छेड़ कर कुबाचा से छुटकारापाया । जिस समय 1220 र्इ. में मंगोल नेता चंगेज खां ने ख्वारजम राज्य समाप्त किया, उस समयअल्तमश ने अनुभव किया कि राजनीतिक दृष्टि से आए संकट को टालना ही हितकर है । इसलिएजब ख्वारजम के शाह का पुत्र जलालुद्दीन भग..रनी मंगोलों से बचकर भाग निकला तो उसनेअल्तमश से शरण मांगी । अल्तमश ने किसी प्रकार उसे टाल दिया । इस प्रकार उसने मंगोलों सेदिल्ली सल्तनत की रक्षा की ।1225 र्इ. के बाद अल्तमश के पूर्वी भाग में विद्रोह दमन करता रहा । जिस समय अल्तमशउत्तर-पश्चिमी सीमा के मामलों में उलझा हुआ था उस समय बंगाल के नए शासक इयाजखां नेस्वतंत्र रूप से राज्य करना आरम्भ कर दिया था । अल्तमश ने 1226-27 र्इ. में अपने पुत्रनासिरूद्दीन महमद के नेतृत्व में एक विशाल सेना बंगार विजय के लिए भेजी । इस सेना ने इबाजको पराजित किया और बंगाल तथा बिहार को पुन: दिल्ली सल्तनत के अधीन किया । इसी प्रकारउसने राजपूतों के विरूद्ध भी अभियान छेड़ा । उसने 1226 र्इ. में रणथम्भौर विजय किया और 1231र्इ. तक उसने मन्दोर, जालौर, बयाना और ग्वालियर पर अपना अधिकार जमा लिया था ।यद्यपि अल्तमश को गुजरात अभियान में सफलता नहीं मिली थी तथापि इसमें सन्देह नहींकि उसने ऐबक के अधूरे कार्य को पूरा किया । जब दिल्ली सल्तनत का पर्याप्त विस्तार हो चुकाथा । अल्तमश ने अमीरों का एक संगठन बनाया । यह संगठन चहलगानी या 40 का दल कहलाताथा । अस्तमश ने ही दिल्ली सल्तनत के प्रशासन की नींव रखी थी ।

रजिया (1236-1240 र्इ.)

अल्तमश ने अपने किसी भी पुत्र को गद्दी के उपयुक्त नहीं समझा था । इसलिए उसनेअपनी पुत्री रजिया को मनोनीत किया । अल्तमश की मृत्यु के बाद कुछ अमीरों ने उसके सबसे बड़ेबेटे रूकनुद्दीन को गद्दी पर बैठाया । तथापि रजिया ने दिल्ली की जनता और कुछ नायकों कीसहायता से गद्दी प्राप्त कर ली ।

रजिया के लिए राजसिंहासन एक समस्या सिद्ध हुआ । उसके भाइयों के साथ-साथ अमीरोंका एक वर्ग भी उसके विरूद्ध षड्यंत्र रच रहा था । तथापि रजिया ने बुद्धिमता पूर्वक स्थिति कोसंभाला । उसने अनुभव कर लिया था कि चहलगामी सरदार बहुत शक्तिशाली हो गए थे ।इसलिए उसने जान-बुझकर गैरतुर्की को प्रशासन के ऊँचे पर दिए । उसने अपनी राजनीतिकसूझ-बूझ का परिचय उस समय दिया जब उसने निर्बल ख्वारज्म साम्राज्य के साथ मंगोलों केविरूद्ध सन्धि को अस्वीकार कर दिया ।

रजिया एक शक्तिशाली और यथार्थवादी शासक थी । वह प्रत्यक्ष रूप में शासन कार्य करनेलगी वह स्वयं दरबार लगाती और सेना का संचालन करती थी ।अमीरों ने भी अनुभव कर लिया था कि रजिया स्त्री होने पर भी उसके हाथ की कठपुतलीनहीं बनेगी । अमीरों ने प्रान्तों में विद्रोह करने शुरू कर दिए क्योंकि वे जानते थे कि वह गैर तुर्कोंको उच्च पद दे रही थी और उसे दिल्ली की जनता का समर्थन प्राप्त था । उन्होंने आरोप लगायाकि वह याकूबखां नामक अबेसीनीयार्इ सरदार से मित्रता कर रही थी । रजिया वीरता पूर्वक लड़ीपरन्तु पराजित हुर्इ और बाद में मारी गर्इ । इस प्रकार उसका संक्षिप्त शासन 1240 र्इ. में समाप्तहो गया ।

नसिरूदीन महमूद (1246-1266 र्इ.)

बलबन एक नाइब के रूप में -ं रजिया के शासन काल मे सुल्तान और तुर्की सरदारों(चहलगानी) के बीच सत्ता के लिए जो संघर्ष आरम्भ हुआ था, वह अब भी चलता रहा । रजियाकी मृत्यु के बाद चहलगानी सरदारों की शक्ति इतनी बढ़ गर्इ कि वे सुल्तान बनाने और हटाने मेंमुख्य भूमिका निभाने लगे । एक चहलगानी महत्वकांक्षी सदस्य उलध खां ने 1246 र्इ. में एक“ाड्यन्त्र रचकर नसिरूद्दीन नामक अनुभवहीन नवयुवक को गद्दी पर बैठाया । उलध खां (जोबाद मं बलबन के नाम से गद्दी पर बैठा) ने नाइब का पद लिया । उसने अपनी स्थिति सुदृढ़ करनेके लिए अपनी पुत्री का विवाह नसिरूद्दीन से कर दिया । तथापि बलबन की बढ़ती शक्ति कोदेखकर अनेक तुर्की सरदार उससे जलने लगे । उन्होंने एक “ाड्यन्त्र रचकर 1250 र्इ. में बलबनको नाइब के पद से हटवा दिया । नाइब के पद पर भारतीय मुसलमान इमामुद्दीन रैहान नियुक्तकिया गया । बलबन के पद तो छोड़ दिया परन्तु वह अपने संगठन दृढ करता रहा । अन्त में वहअपने पुराने पद पर आ गया । पद भार संभालने के बाद उसने अपने शत्रुओं का दमन करने केलिए उचित और अनुचित सभी तरीके अपनाए । उसने शाही चिन्ह भी प्राप्त कर लिया । सुल्ताननसिरूद्दीन की मृत्यु 1265 र्इ. में हुर्इ । बहुतों का कहना है कि बलबन ने उसे जहर दिया था ।बलबन गद्दी पर बैठा और उसके ही साथ शक्तिशाली केन्द्र शासन का युग आरम्भ हुआ ।

बलबन (1266-1287 र्इ.)

जिस समय बलबन गद्दी पर बैठा उसकी स्थिति सुदृढ़ नहीं थी । तुर्की सरदार किस प्रकारसहन करते कि उनमें से एक गद्दी पर बैठे । मंगाल, सल्तनत पर आक्रमण करने के लिए उचितअवसर की प्रतीक्षा में थे । दूर-दराज के प्रान्तीय हाकिम स्वतंत्र शासक बनने के प्रयत्न कर रहेथे । हिन्दू राजा छोटे से छोटा अवसर पाकर विदा्र हे करन े के लिए तैयार थे । दिल्ली के आस-पासके क्षेत्र में मेवाती गड़बड़ कर रहे थे । बलबन ने आरम्भ से ही कठोर नीति अपनार्इ । इस नीति को ‘ब्लड एंड आयरन’ (लौह औररक्त) की नीति कहा जाता है । वह स्वेच्छाधारी शासक था । उसने सुल्तान के पद की प्रतिष्ठाबढ़ाने का प्रयत्न किया । उसने दरबार की दलबन्दी को समाप्त किया और अमीरों की शक्ति कोबढ़ने से राकने का प्रयास किया । उसने सुंल्तान के पद की प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिए राजस्व केसिद्धान्त का प्रतिपादन किया ।

बलबन ने सेना का पुनर्गठन किया । साम्राज्य के विभिन्न भागों में विद्रोह दमन के लिएउसने सेना तैनात की । उसने दोआब क्षेत्र में शासन व्यवस्था और शान्ति बनाए रखने के लिएअनेक कदम उठाए उसने जंगल कटवा कर सड़के बनवार्इ और किलों में सेना रखी । उसने मेवात,दोआब, अवध और कटिहार में फैली अशान्ति को कठोरता पूर्वक समाप्त किया । उसने पूर्वीराजपूताने में अजमेर और नागोर पर अपना नियंत्रण स्थापित किया । परन्तु उसके रणथम्भोर औरग्वालियर विजय के प्रयत्न असफल रहे ।

अल्तमश के बाद बिहार और बंगाल स्वतंत्र हो गए थे । बलबन ने उन्हें पुन: दिल्ली सल्तनतके अधीन लाने का प्रयास किया । बंगाल का हाकिम तुगरिल खां 1279 र्इ. में स्वतंत्र हो गया था।बलबन ने अपनी सेना बंगाल भेजी जिसने तुगरिल खां को निर्दयता पूर्वक मार दिया और बलबनने अपने पुत्र बुगरा खां को बंगाल का हाकिम नियुक्त किया ।

मंगोल दलबन को निरन्तर तंग कर रहे थे । मंगोलों ने सिन्ध के पश्चिमी क्षेत्र पर तो अपनाअधिकार जमा ही रखा साथ ही वे पंजाब पर भी आक्रमण करते रहे थे । इसलिए बलबन उन्हें पूर्वकी ओर बढने से रोकना चाहता था । बलबन ने उत्तर पश्चिमी सीमा पर किले बनवाए और उनमेंसेना रखरी । मंगोल नेता हलाकू दिल्ली सल्तनत से अच्छे संबंध बनाए रखना चाहता था ।इसलिए उसने अपना राजदूत दिल्ली भेजा । इस प्रकार बलबन अपनी कूटनीति और शक्ति के बलपर मंगोलों को काबू में रख सका ।

1287र्इ. में बलबन की मृत्यु हुर्इ । उसका उत्राधिकारी शाहजाद मुहम्मद पहले ही मंगोलआक्रमण में मारा जा चुका था । इसलिए बलबन की मृत्यु के बाद सरदारों ने उसके पौत्र कैकुवादको गद्दी पर बैठाया । वह अपने से पूर्व हुए अनेक सुल्तानों की भांति निर्बल और विलासप्रिय सिद्धहुआ । एक बार फिर दरबार में दलबन्दी हुर्इ । जिस समय कैकुवाद को पक्षाघात् हुआ सरदारों नेउसके अल्पव्यस्क पुत्र कैमूर को गद्दी पर बैठाया । गद्दी पर तुर्को का अधिकार बनाए रखने केलिए ही यह किया गया था ।

तथापि बलबन का वंश अपने अंत की ओर था । गैर-तुर्क औरभारतीय मुसलमान सदा से ही तुर्को के एकाधिकार के विरोधी रहे थे । जमालुद्दीन खलजी केनेतृत्व में खलजी सरदारों ने 1290 र्इ. में कैमूर को गद्दी से उतार कर अपना अधिकार बना लियाऔर इस प्रकार बलजी वंश की नीव रखी गर्इ ।




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