विकास की परिभाषा क्या है
Pradeep Chawla on 14-10-2018
यदि कोई दल या नेता इन सेवाओं को उपलब्ध करवाने के आश्वासन देकर अपने नगर या राज्य के विकास की डींग हांक रहा है तो मानिए कि वह जनता के साथ छल कर रहा है। इन सेवाओं का न होना हमारे नेताओं और सरकार की कमज़ोरी का परिणाम है, किन्तु उपलब्ध होना विकास की निशानी कतई नहीं। उदाहरण के लिए संयुक्त अरब अमीरात को लीजिए जिसकी राजधानी दुबई है। यहां उम्दा सड़कों का जाल, अत्याधुनिक यातायात व्यवस्था, उत्कृष्ट स्वास्थ्य सेवाएं, स्वच्छ पानी और निर्बाध बिजली की आपूर्ति होने के बाद भी इस देश को विकसित देश नहीं माना जाता है।
विकास की परिभाषा को समझाने के लिए विश्व बैंक ने बड़ी विस्तृत चर्चा की है। विश्व के सभी देशों को तीन भागों में बांटा गया है। विकसित, विकासशील एवं अविकसित देश। किसी भी राष्ट्र को विकसित राष्ट्र का दर्जा हासिल करने के लिए कई मानकों पर खरा उतरना पड़ता है। प्रथम है आर्थिक प्रगति। प्रति व्यक्ति आय में लंबे समय तक वृद्धि होनी चाहिए तथा गरीबी में निरंतर गिरावट आनी चाहिए। निजी क्षेत्र, खासकर निजी उद्योगों को युवाओं के लिए रोज़गार के अवसर पैदा करने के लिए मुख्य भूमिका निभानी होती है। स्वास्थ्य, शिक्षा, बिजली, पानी जैसी आधारभूत सुविधाएं सभी नागरिकों को सामान रूप से उपलब्ध होना चाहिए।
यही नहीं शिक्षा और स्वास्थ्य में हर व्यक्ति को अपने व्यक्तिगत समय और धन निवेश करने की क्षमता होनी चाहिए। हर नागरिक की भागीदारी होना चाहिए उन निर्णयों में जो उसके जीवन को प्रभावित करते हैं। सुशासन एक महत्वपूर्ण आवश्यकता है विकसित देश होने के लिए जहां का प्रशासन सक्रिय हो, सरकारी और निजी क्षेत्रों में उचित सामंजस्य हो, कानून व्यवस्था का शासन हो, सामाजिक सुरक्षा हो। विकास को लेकर देश की अपनी स्वयं की एक योजनाबद्ध रुपरेखा होनी चाहिए।
विज्ञान और तकनीक में प्रगति के बिना विकास के सपने देखना बेमानी हैं। भारत जैसे अधिक जनसंख्या वाले देश को आर्थिक प्रगति करने के लिए उद्योग और कृषि के क्षेत्र में उन्नत तकनीक चाहिए। तकनीक आधुनिक होती है विज्ञान की मदद से। विज्ञान में विकास होता है खोजों से तथा प्रयोगशालाओं में निवेश से। इन खोजों के लिए युवाओं को उच्च शिक्षा के अवसर चाहिए। हम तो केवल अभी उस पायदान पर हैं जहां अशिक्षा को दूर करना है तो फिर ये विकास का कैसा मुद्दा?
यहां यह भी जानना आवश्यक होगा कि आधारभूत सुविधाएं कहीं अपने संसाधनों को बेचकर तो नहीं जुटाई गई हैं। जिस तरह घर को बेचकर कुछ समय के लिए धन की प्राप्ति तो हो जाती है किन्तु समृद्धि हासिल नहीं होती, उसी तरह राष्ट्र के संसाधनों को बेचकर कुछ समय के लिए धन तो हासिल हो जाता है, किन्तु यह समृद्धि राष्ट्र के जीवन में क्षणिक है। जैसे-जैसे संसाधनों का टोटा होने लगता है, राष्ट्र स्वयं को पोषित करने में अक्षम होता है। अतः आवश्यक है संसाधनों का संरक्षण हो, उपयोग में मितव्ययता हो। विकसित राष्ट्रों ने इस बात को बखूबी समझा है। अमेरिका तेल के अथाह भंडार पर बैठा है, पर स्वयं अपने तेल को उसने संरक्षित करके रखा है और खाड़ी के देशों से अपने उपयोग के लिए तेल आयात करता है।
ध्यान रहे कि भूखों को अन्न देने से, निराश्रित को आसरा देने से, खेतों को पानी देने से, बेरोज़गारों को रोज़गार देने मात्र से राष्ट्र विकास की सीढ़ियां नहीं चढ़ता। चुनावों में नेताओं द्वारा इन जरूरतों को पूरा करने के आश्वासन देना भी अपनी नाकामियों का बेशर्मी से सरे आम ढोल पीटना है। ये विकास के वायदे नहीं अपितु पिछड़ेपन को हटाने के सपने हैं। पिछड़ापन दूर होगा तो विकास की बुनियाद रखी जाएगी। हम ने अभी तो विकास के पथ पर चलना आरंभ भी नहीं किया है।
जातिवाद और संप्रदायवाद के समीकरण बैठाकर चुनावों को जीतना वैसा ही है जैसा अपने घर को स्वयं फूंककर उजाले का आनंद लेना है। वोटों की राजनीति में देश के संसाधनों को मुफ्त में बांटने का अर्थ है आने वाली पीढ़ियों के हिस्से का केक स्वयं खा लेना है। पिछड़े होकर विकास की बातें करना वैसा ही है जैसे रेगिस्तान में बहारों के ख्वाब परोसना है। विकास की बातें तब शोभा देंगीं जब देश से भ्रष्टाचार, अशिक्षा, जातिवाद, संप्रदायवाद के कलंक मिटेंगें किन्तु बिल्ली के गले में घंटी बांधने का साहस (इन चूहेनुमा मनोवृत्ति वाले नेताओं में से) किस के पास है? देश का 35 प्रतिशत युवा तो तैयार है, क्या बाकी लोग भी तैयार हैं? और यदि हैं तो फिर उनकी सुनिए जो देश का भविष्य हैं।
साथ ही यह भी जरूरी है कि आप हम जैसे चिंतनशील और जागरूक लोग अधिक से अधिक साहस बटोरने का प्रयत्न करें। ये ही तरीकें हैं घने अंधकार में छोटी सी ज्योति जलाने के जो बाद में मशाल का रूप धारण कर सके। इतिहास बताता है कि संसार के जिस भी अविकसित देश ने विकास की छलांग लगाई है, उसने इसी मार्ग का अनुसरण किया है।
Vikas kise kehte hai