Bharat Me Upniveshwad Ke Vibhinn Charan भारत में उपनिवेशवाद के विभिन्न चरण

भारत में उपनिवेशवाद के विभिन्न चरण



Pradeep Chawla on 12-05-2019

भारत में ब्रिटिश उपनिवेशवाद के विभिन्न चरण (Different Stages of British Colonialism in India)



उपनिवेशवाद एक ऐसी संरचना होती है, जिसके माध्यम से किसी भी देश का आर्थिक शोषण तथा उत्पीड़न होती है। इस संरचना के अंतर्गत कई प्रकार के विचार, व्यक्तित्वों और नीतियों का समावेश किया जा सकता है। यही वास्तव में उपनिवेशवादी नीति का निर्णायक तत्व होता है। उपनिवेशवाद का मूल तत्व आर्थिक शोषण में निहित होता है, लेकिन किसी उपनिवेश पर राजनीतिक कब्ज़ा बनाए रखने की दृष्टि से इसका भी अपना महत्व होता है।



कार्ल माकर्स के भारत में ब्रिटिश उपनिवेशवाद और आर्थिक शोषण के जिन तीन चरणों वाले सिद्धांत को आधार बनाया है, वे निम्नवत है-



1. वाणिज्यिक चरण : 1757 ई. से 1813 ई.

2. औधोगिक मुक्त व्यापार : 1813 ई. से 1860 ई.

3. वित्तीय पूँजीवाद : 1860 ई. के बाद की अवस्था

उपनिवेशवाद का प्रथम चरण : वाणिज्यिक चरण, 1757 - 1813 ई. (First Stage of Colonialism : Commercial Phase, 1757-1813)



इंग्लैण्ड की (ईस्ट इण्डिया कंपनी ने प्लासी के युद्ध के बाद बंगाल पर अपना प्रभुत्व जमा लिया था। इसी समय से भारत में ब्रिटिश उपनिवेशवाद की स्थापना मानी जाती है अर्थात 1757 ई. से 18 वी शताब्दी के आरंभ तब जब कि मुगल का पतन हो रहा है। इधर ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कंपनी कि साम्राज्यवादी मानसिकता स्पष्टतः पारिलक्षित होने लगी थी। उपनिवेशवाद के प्रथम चरण में अंग्रेजो का ध्यान आर्थिक लूट पर ही क्रेंद्रित रहा। कंपनी भारत के साथ व्यापार पर अपना वर्चस्व चाहती थी जिससे कि उसके साथ प्रतिस्पर्धा करने वाला कोई अन्य ब्रिटिश अथवा यूरोपीय व्यापारी या व्यापारिक कंपनी न हो। यूरोप के अन्य राष्ट्रों को भारत से दूर रखने के लिए कंपनी को फ्रांसीसियों तथा डचों के साथ भीषण लड़ाइयाँ लड़नी पड़ी। आरंभ में बंबई, कलकत्ता और मद्रास के जिन समुद्री क्षेत्रों पर कंपनी का नियंत्रण था, वहाँ की जनता पर कंपनी ने स्थानीय कर लगाने शुरू कर दिए और अपने खजाने को बढ़ाने की कोशिश की। शीघ्र ही कंपनी की यह अभिलाषा पूर्ण हो गई और प्लासी के युद्ध के बाद बंगाल, बिहार और दक्षिण भारत के कुछ हिस्से कंपनी के अधीन आ गए। परिणामतः जीते गए क्षेत्रों की सरकारी आय पर कंपनी का पूरा नियंत्रण स्थापित हो गया। जमींदारों, नवाबों और स्थानीय शासकों कि जमा पूँजी हड़पने में यह नियंत्रण अत्यधिक कारगर सिद्ध हुआ।

उपनिवेशवाद का द्रितीय चरण : औधोगिक मुक्त व्यापार (1813 - 60 ई) (Second Stage of Colonialism : Industrial Free Trade -1813-60)



सन 1813 से भारत के व्यापार से कंपनी का एकाधिकार समाप्त हो गया और यही से औधोगिक पूँजीवाद द्वारा भारत के शोषण का नया रूप सामने आया। यही कारण है कि भारत के साम्राज्यवादी शोषण के इतिहास में 1813 ई. के वर्ष को महत्वपूर्ण माना जाता है। ब्रिटेन में औधौगिक क्रांति के पश्चात कई समस्याएँ उठ खड़ी हुई। इनमें सब से प्रमुख समस्या थी कारखानों में बने माल के लिए बाज़ार खोजने की। सस्ती लागत पर तैयार ब्रिटेन के कपड़ो को भारतीय बाजारों में भेजा जाने लगा। ये कपड़े मिल में तैयार होते थे, इसलिए हाथ से बने भारतीय कपड़ो से सस्ते होते थे। परिणामस्वरूप, अंग्रेजी कपड़ो की सस्ती कीमतों के आगे भारतीय कपड़े टिक नहीं सके। फलतः भारतीय वस्त्र उद्दोग को जबर्दस्त धक्का पंहुचा।



ब्रिटेन को आवश्यकतानुसार कच्चा माल उपलब्ध करवाने की दृष्टि से उपनिवेशवाद कि इस व्यवस्था का अपना अलग ही महत्व था। इसका लक्ष्य भारत को ब्रिटेन के एक अधीनस्थ बाज़ार के रूप में विकसित करना था जिससे इसका आसानी से शोषण किया जा सके। भारत को औधोगिक पूँजीवाद (Industrial Capitalism ) के अनुकूल बनाने के लिए स्थानीय शिल्प उधोगो को नष्ट कर एक कृषि प्रधान देश के रूप में परिवर्तन करना अंग्रेजों की एक सोची-समझी कार्यनीति का हिस्सा था।

उपनिवेशवाद का तृतीय चरण : वित्तीय पूँजीवाद (1860 ई. के पश्चात) (Third Stage of Colonialism : Financial Capitalism – After 1860)



औधोगिक विकास एवं औपनिवेशिक बाजारों के शोषण के परिणामस्वरूप ब्रिटेन में बड़ी पूँजी जमा हो गई। उधोगपतियो की बढ़ती हुई संपत्ति के फलस्वरूप मजदूर वर्ग को संगठित होने कि प्रेरणा मिली। इंग्लैंड में और अधिक औधोगीकरण का अर्थ था मजदूरों की सौँदबाजी में वृद्धि होना तथा पूंजीपतियों के मुनाफे पर विपरीत असर पड़ना क्योकि यह वही समय था जब माकर्स एवं एंजिल्स का द कम्युनिस्ट मैनीफेस्टो अंग्रेजी भाषा में प्रकाशित हो चुका था। अतः पूँजी को भारत में निवेश करना उचित समझा गया। इसी स्थिति को पूँजीवाद के तृतीय चरण के आरंभ के रूप में माना जाता है।



अपनी व्यावसायिक एवं प्रशासनिक आवश्यकताओ की पूर्ति के लिए ब्रिटिश सरकार रेल लाइनो का विकास आवश्यक मानती थी। रेल निर्माण कि दिशा में भारत में प्रथम प्रयास 1846 ई. में लॉर्ड डलहौजी ने किया। प्रथम रेलवे लाइन 1853 ई. में बंबई तथा थाणे के बीच बिछायी गयीं। वैसे भारत में रेलवे लाइन का सर्वधिक विस्तार लॉर्ड कर्जन के समय में हुआ। अंग्रेजों द्वारा वाणिज्यिक और सामरिक उदेश्यो से भारत में बिछायी गयीं रेल को कार्ल माकर्स आधुनिक युग के अग्रदूत की संज्ञा दी। रेल निर्माण के क्षेत्र में विनियोजित पूँजी वित्त प्रणाली कि विशेषता को दर्शाती है, जिसे गारंटी प्रणाली कहा गया। अंग्रेजों ने सूती मिलों एवं इस्पात की फक्ट्रियों में पूँजी का विनियोग नहीं किया। वे अपने देश के उधोगो के साथ प्रतियोगिता में नहीं आना चाहते थे। रेल निर्माण के बाद जिनके विकास से सर्वाधिक पूँजी लगी, वे थे - चाय, कॉफी, रबर, नील आदि के बागान । भारत के विशाल बाज़ार पर कब्जा करने के लिए भारत में ही उधोगो की स्थापना के महत्व से उधोग्यपति परिचित थे। ऋण की राशि 1857 ई. में जहाँ 7 करोड़ पाउण्ड थी, 1939 ई. में बढ़कर 88 करोड़ 42 लाख पाउण्ड हो गई थी। इस पर ब्याज तथा लाभांश भी भारत को ही देना पड़ता था।




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