Keeton Ke Naam कीटों के नाम

कीटों के नाम



Pradeep Chawla on 18-09-2018


सफाई करने वाले कीट

जो कीट वनस्पति नहीं खाते, वे उच्छिष्ट वस्तुओं, अन्य कीटों या अन्य जीवों को अपना भोजन बनाते हैं। सफाई करने वाले कीट कूड़ा कर्कट आदि इसी प्रकार की अन्य परित्यक्त वस्तुओं पर अपना जीवननिर्वाह करते हैं। सड़ी गली वनस्पतियों से बहुत से कंचुकपक्ष, मक्खियाँ तथा अन्य कीट आश्रय तथा भोजन पाते हैं। गोबर, जीवों के सड़ते हुए शव तथा इनके अन्य अवशेष किसी न किसी कीट का भोजन अवश्य बन जाते हैं। कीटों की ये कृतियाँ मनुष्य के लिए बहुत लाभदायक हैं। अपाहारी (प्रिडेटर, Predator) वह जीव है जो अन्य जीवों पर निर्वाह करता है, मांसाहारी होता है, अपने शिकार की खोज में रहता है और पाने पर उसको खा जाता है। इस प्रकार का व्यवहार विभिन्न वर्गों के कीटों में पाया जाता है। इनका शिकार कोई अन्य कीट, या अपृष्ठवंशी जीव होता है। ऐसे जीवन के कारण इन कीटों की टाँगों, मुख भागों और संवेदक इंद्रियों में बहुत से परिवर्तन हो जाते हैं। ऐसे कुछ कीटों के व्यवहार में भी स्पष्ट पविर्तन दृष्टिगोचर होता है। कुछ कीट अपनी टाँगों का अपने शिकार को पकड़ने तथा भक्षण करते समय थामने के लिए उपयोग करते हैं। व्याध पतंग (Dragon fly) अपनी तीनों जोड़ी टाँगे और जलमत्कुण तथा मैंटिड (Mantid) केवल बगली टाँगों का ही इस कार्य में उपयोग करते हैं। इस कारण इनकी टाँगों में परिवर्तन पाया जाता है। डिस्टिकस (Disticus) के जंभ अपने शिकार को पकड़ने के लिए नुकीले तथा आगे की ओर निकले रहते हैं। व्याधपतंग के निंफ का ओष्ठ (Labium) अन्य कीटों के पकड़ने के लिए विशेष आकृति का बन जाता है। इन कीटों के संयुक्त नेत्र विशेष रूप से विकसित होते हैं। कुछ अपाहारी कीटों की टाँगे दौड़ने के लिए उपयुक्त होती हैं और कुछ तीव्रता से उड़ सकते हैं। अनेक अपाहारी अपने अंडे अपने शिकार के संपर्क में रखते हैं, जैसे लेडी-बर्ड बीटल (Lady-bird beetle) अपने अंडे द्रुमयूका के पास रखता है। अनेक अपाहारी अपने शिकार की प्रतीक्षा में छिपे बैठे रहते हैं और जैसे ही उनका शिकार उनकी पहुँच में आता है, उस पर एकबारगी झपटा मारते हैं, जैसे मैंटिस में अपने को गुप्त रखने के लिए पत्ती जैसा रंग होता है। जलपक्ष के कुछ डिंभ अपने शिकार, चींटियों, को पकड़ने के लिए गड्ढा बनाते हैं।

परजीवी

परजीवी वे कीट हैं जो अन्य जीवों पर निर्वाह तो करते हैं, किंतु उनका वध किए बिना ही उनसे भोजन प्राप्त करते हैं और प्राय: एक ही पोषक पर निर्भर रहते हैं। ये अपने अंडे प्राय: अपने पोषक के शरीर पर देते हैं। परजीवी कीट दो प्रकार के होते हैं-एक जो कशेरु क दंडियों पर और दूसरे जो अन्य कीटों तथा उनके संबंधियों पर जीवित रहते हैं। प्रथम वर्ग के कीट ऐनोप्ल्यूरा (Anopleura), मैलोफैगा (Mallophaga) और साइफोनैप्टरा (Siphonaptera) गणों तथा हिप्पोबोसाइडी (Hippoboscidae) वंश के अंतर्गत आते हैं। ये परजीवी अपने पोषक की तुलना में बहुत छोटे होते हैं। पोषक में इनको सहने करने की शक्ति विकसित हो जाती है और इस कारण इनका प्रभाव प्राणनाशक नहीं होता। इनमें से अधिकतर ब़ाह्य परजीवी हैं और पोषक के शरीर पर रहते हैं। साइफोनैप्टरा के अतिरिक्त अन्य का शरीर ऊपर नीचे से चौरस होता है और ये पोषक के शरीर से चिपके रहते हैं। इनके पैरों पर पोषक को पकड़े रहने के लिए हुक होते हैं तथा नेत्र क्षीण या लुप्त हो जाते हैं। पक्षों का भी प्राय: अभाव रहता है और यदि वे होते भी है तो बहुत छोटे होते हैं। कीटों के परजीवी इने गिने ही हैं। स्ट्रेप्सिप्टस गण के अतिरिक्त मधुमक्खी की जूँ, ब्रेउला (Braula) ही केवल इनका अन्य उदाहरण है।


अर्ध परजीवी (पैरासिटॉइड Parasitoide) का व्यवहार अपाहारी और परजीवी के मध्य का सा होता है। आरंभ में यह परजीवी की तरह रहता है, अर्थात्‌ पोषक की अति आवश्यक इंद्रियों को नष्ट नहीं करता, किंतु बाद में इसका व्यवहार अपाहारी जैसा हो जाता है और यह अपने पोषक का भक्षण कर जाता है। यह प्राय: अपने अंडे पोषक के शरीर के ऊपर या भीतर रखता है। इसके डिंभ पोषक से स्थायी रूप से चिपके रहते है और अपना भोजन पोषक के शरीर के भीतर या बाहर से प्राप्त करते हैं। अधिकतर ये कीट द्विपक्ष वंश की टैकिनाइडी (Tachyniade) और कलापक्ष के पैरासाइटिका (Parasitica) वर्ग में ही पाए जाते हैं। इनके प्रौढ़ क्रियाशील होते हैं और पराश्रयी नहीं होते। अर्धपरजीवी का आकार पोषक के आकार की तुलना में बड़ा होता है और यह अपने व्यवहार से पोषक को प्राय: सदा ही नष्ट कर देता है। पोषक अधिकतर अन्य कीट ही होते हैं, जिनके अंडों या अन्य अप्रौढ़ अवस्थाओं पर अर्धपरजीवी का आक्रमण होता है। प्रौढ़ कीट पर कभी भी आक्रमण नहीं होता। टैकिनाइडी वंश के कीट पोषक के भीतर रहते हैं, किंतु अंडे पोषक के ऊपर, या पोषक से दूर, रखते हैं। बहुत से पराश्रयी कलापक्ष बाह्य पराश्रितों की भाँति रहते हैं, किंतु अधिकतर आंतरिक पराश्रयी हैं और अपने अंडे पोषक की त्वचा के भीतर प्रविष्ट कर देते हैं। अर्धपरजीवियों में सबसे अधिक महत्व की बात इनके श्वसनतंत्र में पाई जती है, विशेष करके आंतरिक अर्धपरजीवियों में, जो अपने पोषक के रक्त में मिली हुई आक्सिजन का श्वसन करते हैं। किंतु कुछ आंतरिक अर्धपरजीवी ऐसे भी हैं। जो सीधे वायुमंडल से आक्सीजन प्राप्त करते हैं।

इन्क्विलाइन (Inquiline)

कुछ कीट दूसरे कीटों का तो भक्षण नहीं करते, किंतु उनकी एकत्र की हुई सामग्री को खा जाते हैं। ऐसे कीट इन्क्विलाइन कहलाते हैं। ये कीट सामाजिक कीटों के घोसलों में बहुतायत से पाए जाते हैं। इनका बहुत प्रसिद्ध उदाहरण मोम का शलभ हैं, जो मधुमक्खी के छत्तों में रहता है और छत्तें को नष्ट कर देता है। वोलुसिला (Volucella) नामक चक्कर खानेवाली मक्खी भिन-भिनानेवाली मक्खियों और बर्रों के छत्तों में रहकर उच्छिष्ट कार्बनिक मक्खी पदार्थों को खाती हैं। ऐटेल्युरा (Atelura) नामक कीट चीटियों के विवरों में रहता है और जब एक चींटी दूसरी चींटी को अपना उलटी किया हुआ भोजन देने लगती है तो उसको पी लेता है। कुछ ऐसे भी कीट हैं जो अपने पोषकों को, उनके साथ रहने के बदले में, लाभ पहँचाते हैं। कुछ कंचुकपक्ष चीटियों के विवरों में आश्रय और भोजन पाते हैं और इसके बदले में अपने शरीर से स्राव निकाल कर देते हैं, जिसको पाने के लिए ये चीटियाँ बहुत लालायित रहती हैं। इस संबंध की अंतिम श्रेणी यह हैं की चीटियाँ स्राव के बदले में अतिथि कंचुकपक्ष को वस्तुत: भोजन देती हैं। परस्पर लाभ पहुँचाने का यह एक सुंदर उदाहरण है (देखें सामाजिक कीट)।

कीटमंडलियाँ और सामाजिक कीट

अधिकतर कीटों की प्रकृति अकेले ही रहने की होती है, किंतु कुछ जातियों के कीट नियत परिस्थिति में अपनी मंडली बना लेते हैं। शीतकाल में जब ताप बहुत नीचे गिर जाता है, घरेलू मक्खियाँ प्राय: एक साथ एकत्र हो जाती हैं। कुछ इल्लियाँ यूथचारी हैं और एक साथ जन्मी हुई सब इल्लियाँ एक ही जाले में एक साथ-साथ रहती हैं, किंतु ऐसी मंडलियाँ भोजन समाप्त होते ही तितर बितर हो जाती हैं और प्रत्येक इल्ली स्वतंत्र रहने लगती है। बहुत से कीट अनेक परिस्थितियों से विवश हो ग्रीष्मकाल बिताने, प्यूपा बनने और शीत निष्क्यिता के लिए एकत्र हो जाते हैं। इनमें से एक परिस्थिति है सुरक्षित स्थान की खोज। कीटों की मंडली में रहने की प्रकृति के कारण परजीवी और अपाहारी शत्रुओं से तथा प्रतिकूल परिस्थितियों से इनकी संभवत: रक्षा हो जाती है। भ्रमणकारी कंचुकपक्षों की झुंडों में रहने और क्रियाशील होने के कारण कुछ रक्षा हो जाती है। टिड्डियाँ और तितिलियाँ प्र्व्राजन के समय यूथचारा बन जाती हैं। हेलिक्टस (Helictus) नामक एकाकी मक्षिका भूमि में बनी हुई सुरंग के मुख के चारों और नन्हें-नन्हें कमरे बनाती हैं। इन कमरों में भोजन और एक एक अंडा रख देती है, तत्पश्चात इनकी रक्षा करती रहती है। यह उस समय तक जीवित भी रह जाती हैं जब तक अंडों से मक्षिकाएँ निकल न आएँ। वह कीट, जो अपनी संतानों की कम से कम उनके जीवन के आरंभ में देखभाल करता है, सामाजिक जीवन की प्रथम श्रेणी का कहा जा सकता है। भिन्न-भिन्न वर्गों के सामजिक कीटों में भिन्न-भिन्न विलक्षणताएँ दृष्टिगोचर होती हैं, किंतु इनकी प्रत्येक मंडली का सबसे महत्वपूर्ण लक्षण यह हैं कि एक ही कुटुब होता है, जिसमें एक नर, एक मादा और उनकी संतान, या एक गांभत मादा और उसकी संतान, अर्थात्‌ कम से कम दो पीढ़ियां एक ही स्थान पर ही मिल जुलकर रहती हैं। वास्तविक सामाजिक जीवन बरा, मधुमक्खियों, चीटियों और दीमकों में पाया जाता है। (देखें सामाजिक कीट)।

फॉरिसी (Phoresy)

एक अन्य प्रकार का सहजीवन है जिसमें एक कीट दूसरे कीट के शरीर पर चिपका रहता है। जिन कीटों के शरीर पर चिपकते हैं वे प्राय: बड़े होते हैं, किंतु छोटा कीट उनको खाता नहीं हैं, अर्थात्‌ कोई हानि नहीं पहुँचाता। मिलोइडी (Melodiae) वंश के ट्राइऐंगुलिन (Triangulin) डिंभ को सामाजिक कलापक्ष अपने शरीर पर अपने घोंसलें में ले जाते हैं। वहाँ ये डिंभ उनकी संतान को खा जाते है। सिलिओनाइडी (Scelionidae) वंश के कुछ परजीवी, मादा टिड्डों की पीठ पर, बैठ जाते हैं। जब तक टिड्डे अंडे न रख दें उनकी पीठ पर चढ़े रहते हैं। अंत में अपने अंडे टिड्डों के अंडों में प्रविष्ट कर देते हैं। सबसे सुंदर उदाहरण बॉटफ्लाइ (Botfly) का है। मादा मक्षिका अपने अंडों को मच्छर की टाँगों और शरीर पर चिपका देती है और जब मच्छर रक्त चूसने मनुष्य के पास पहुँचता है तब इन अंडों में से डिंभ निकलकर अपने पोषक मनुष्य पर आक्रमण कर देते हैं।

जलवासी कीट

कीटों की एक बड़ी संख्या जल में रहती है। ये अधिकतर मीठे पानी में रहते हैं, कुछ खारे पानी और समुद्र में भी पाए जाते हैं। इन कीटों के बहुत से लक्षण उपयोगी होते हैं। बहुत से कलापक्षों की चिकनी और चमकती हुई देह तैरते समय पानी की रुकावट कम कर देती है। बहुत से कीटों में जलप्रवाह में बहने से बचने के लिए विशेष प्रकार के साधन पाए जाते हैं, जैसे काली मक्खियों के डिंभ रेशम के धागों को अटकाए रखते हैं। मच्छरों के डिंभों में श्वासरध्रं के चारों ओर पाई जानेवाली ग्रंथियों से तेल मिला हुआ स्राव निकलता है। इसके कारण इन स्थानों के बाह्यत्वक्‌ में जलसंत्रासिक गुण आ जाता है और वहाँ जल ठहर नहीं पाता। अत: श्वसन बेरोक टोक होता रहता है। कुछ कीटों, जैसे पौड्यूरा ऐक्वाटिका (Podura aquatica) में ऐसे बाल होते हैं जिनके कारण बाह्यत्वक्‌ जलसंत्रासिक हो जाता है। इस गुण के कारण श्वासप्रणाल में जल नहीं प्रवेश कर पाता। इनमें भोजन प्राप्त करने के लिए भी विशेष साधन होते हैं, यथा-ओडीनेटा के निंफों में लेबियम का घूँघट एक जाल का कार्य करता है। मच्छरों के डिंभों के मुखों में कंपनकारी बुरुश होते हैं जो जल में लहरें उत्पन्न करते हैं और इस प्रकार भोजन के सूक्ष्मकण इनकी ग्रसिका में पहँुच जाते हैं। डाइटिस्कस (Dytiscus) की पिछली टाँगे पतवार के आकर की हो जाती हैं। नोटोनैक्टा (Notonecta) और डाइटिस्कस (Dytiscus) तैरते समय अपनी दोनों पतवारें एक साथ ही चलाते हैं, किंतु हाइड्रोफिलस (Hydrophilus) अपनी पिछली टाँगे (पतवारें) पारी पारी से चलाता है। जिराइनस (Gyrinus) नामक कंचुकपक्ष मध्य और पश्च टाँगों से, जिनमें बहुत परिवर्तन आ जाता है, तीव्रता से चक्कर लगाते हुए घूमता और तैरता है। कुछ मक्खियों और मच्छरों के डिंभ उदर की पेशियों के प्रबल उद्योग द्वारा तैरते हैं। बहुत छोटे छोटे पोलिनीमा (Polynema) नामक कलापक्ष, जो जलवासी कीटों के अंडों में पराश्रयी होते हैं, अपने पक्षों की सहायता से जल में तैरते हैं। जलवासी कीटों के श्वसनतंत्र में बहुत से परिवर्तन आ जाते हैं। ये ट्रेकिया, जलश्वसनिका या रक्त जलश्वासनिका द्वारा श्वसन करते हैं। कुछ कीट वायु को अपने पास जमा कर लेते हैं और जब वे जल में डूबे होते हैं तब उसका उपयोग करते हैं। द्विपक्षों के कोर्थ्रेाा (Corethro) नामक कीट के पारदर्शी डिंभ का ट्रेकिया तंत्र सेम के आकार की दो जोड़ी थैली सी बन जाती है। ये थैलियां उत्प्लावन इंद्रिय का कार्य करती हैं। यह डिंभ इन थैलियों का परिमाण किसी अज्ञात विधि से पविर्तित क सकता है और इस प्रकार जल की जिस गहराई में चाहे उसी के अनुसार आपेक्षिक गुरु त्व उत्पन्न कर पाता है।




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Comments sures2 Dudi suresh Dudi on 26-10-2023

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