जल-स्रोत
भारत जल संसाधन के मामले में समृद्ध है। भारत में विशाल नदियों का जाल बिछा हुआ है तथा भूमिगत जल धारण करने वाले विशाल जलोढ़ बेसिन मौजूद हैं| फिर भी भारत के अलग-अलग क्षेत्रों की स्थिति में व्यापक अंतर है। एक क्षेत्र सूखा तो दूसरा क्षेत्र बाढ़ से ग्रस्त रहता है। वैसे जल का प्रमुख उपयोग सिंचाई में है। इसके अतिरिक्त औद्योगिक तथा घरेलू उपभोग़ के लिए काफी मात्रा में जल की आवश्यकता होती है।
देश में औसत वार्षिक जल उपलब्धता 1869 बिलियन क्यूबिक मीटर (बी.सी.एम.) अनुमानित है। इसमें से उपयोग में लाया जाने वाला जल संसाधन 1123 बिलियन क्यूबिक मीटर है, जिसमें 690 बी.सी.एम. सतह जल और 433 बी.सी.एम. भूजल है।
जल के स्रोत
जल संसाधनों को दो विशिष्ट श्रेणियों में बांटा जा सकता है- भूपृष्ठीय जल संसाधन एवं भूमिगत जल संसाधन। इनमें प्रत्येक श्रेणी पृथ्वी की जल प्रवाह प्रणाली का एक भाग है, जिसे जल चक्र कहा जाता है। जलचक्र की उत्पत्ति वर्षण (हिम एवं जल) द्वारा होती है। उक्त दोनों श्रेणियां एक-दूसरे पर निर्भर है तथा एक का लाभ स्पष्टतः दूसरे की हानि है। जल के विभिन्न स्रोतों का विवेचन नीचे किया गया है।
वर्षा: भारत में औसतन 118 सेमी. वर्षा होती है। भारत के जल संसाधनों का एक बड़ा अनुपात उन क्षेत्रों में है, जहां औसतन 100 सेमी. वार्षिक वर्षा होती है। वर्षा भूमिगत जलभूतों के पुनर्भरण को मुख्य साधन भी है। कम वर्षा वाले क्षेत्रों में भूमिगत जलभूत सामान्यतः नुनखरे होते हैं, उदाहरण के लिए, पश्चिमी राजस्थान के कुओं का खारा जल सिंचाई उपयोग में भी नहीं लाया जा सकता।
वर्षा प्रतिरूप में भी व्यापक स्थानीय एवं अस्थायी अंतर पाये जाते हैं। जहां मेघालय की खासी पहाड़ियों पर वर्ष में लगभग 1100 सेमी. तक वर्षा होती है, वहीं पश्चिमी राजस्थान के भागों में यह 10 सेमी. वार्षिक से भी कम होती है। भारत में वर्षा का लगभग 80 प्रतिशत मानसून काल के चार महीनों (जून से सितंबर तक) में प्राप्त होता है। भारतीय भूमि पर होने वाले कुल वर्षा की अनुमानित मात्रा लगभग 3700400 मिली. मीटर है। इस मात्रा का एक-तिहाई वाष्पीकरण में खर्च हो जाता है। लगभग 22 प्रतिशत का निस्पंदन तथा शेष नदी प्रणालियों में प्रवाहित हो जाता है।
भूतल प्रवाह: भूपृष्ठीय जल कई प्रकार से भूमिगत जल के पुनर्सचयन में योगदान देता है, जैसे-
नदियों को वर्षा के अतिरिक्त बर्फ पिघलने से भी जल प्राप्त होता है। जल की नदियों पर बांध बनाकर नियंत्रित व संचित किया जाता है।
झीलें
झील जल का वह स्थिर भाग है जो चारों तरफ से स्थलखंडों से घिरा होता है। सामान्य रूप से झील भूतल के वे विस्तृत गड्ढे हैं जिनमें जल भरा होता है। झीलों का जल प्रायः स्थिर होता है। झीलों की एक महत्वपूर्ण विशेषता उनका खारापन होता है लेकिन अनेक झीलें मीठे पानी की भी होती हैं। झीलें भू-पटल के किसी भी भाग पर हो सकती हैं। ये उच्च पर्वतों पर मिलती है, पठारों और मैदानों पर भी मिलती हैं तथा स्थल पर सागर तल से नीचे भी पायी जाती हैं। भारत में कुछ महत्वपूर्ण झीलें हैं- डल और वुलर झील (जम्मू-कश्मीर), चिल्का झील (ओडीशा), सांभर, फलोदी, कछार, लूनकरनसर, राजसमन्द और पुष्कर झील (राजस्थान), भीमताल, सातताल, नौकुचिया ताल खुरपाताल, नैनीताल, पूनाताल, मालवाताल झील (उत्तराखण्ड), खज्जियर, रेणुका झील (हिमाचल प्रदेश), कोरोमण्डल तट पर पुलिकट झील (आंध्र प्रदेश-तमिलनाडु सीमा), कालीवेली और वीरनाम झील (तमिलनाडु),हुसैन सागर और कोलेरू झील (आंध्र प्रदेश),बेम्बानाड झील (केरल) तथा लोकटक झील (मणिपुर)।
जल-प्रपात
जब किसी पर्वत इत्यादि की अत्यंत ऊंचाई से बड़ी मात्रा में जल गिरता है तो जल-प्रपात की सृष्टि होती है। यह कई कारकों, जैसे-शैलों की सापेक्ष प्रतिरोधकता, भू-पृष्ठीय उभारों की सापेक्ष विभेदता, समुद्र तल से ऊंचाई, पुनरुत्थान की प्रक्रियाएं तथा भू-संचलन इत्यादि पर निर्भर करता है।
भारत के अधिकांश जल-प्रपात दक्षिणी भारत में पाए जाते हैं। इनका निर्माण प्रायः पश्चिमी घाट से अरब सागर में प्रवाहित होने वाली नदियों द्वारा हुआ है। प्रमुख जल-प्रपातों का विवरण निम्नानुसार है-
जोग: यह महाराष्ट्र व कर्नाटक की सीमा पर शरावती नदी पर है। इसकी ऊंचाई लगभग 250 मीटर है।
पायकारा: यह नीलगिरि के पर्वतों में पायकारा नदी पर है। इस प्रपात में पानी लगभग 90 मीटर की ऊंचाई से गिरता है।
शिवसमुद्रम: यह कावेरी नदी पर है तथा इसमें पानी लगभग 100 मीटर की ऊंचाई से गिरता है।
गोकक: यह बेलगांव में गोकक नदी पर है तथा इसकी ऊंचाई 54 मीटर है।
येन्ना: यह महाबलेश्वर के निकट है तथा इसकी ऊंचाई 180 मीटर है।
चूलिया: यह चम्बल नदी में कोटा के समीप निर्मित है। इसकी ऊंचाई लगभग 18 मीटर है।
मंधार एवं पुनासा: ये दोनों प्रपात नर्मदा नदी पर जबलपुर के समीप है। इनकी ऊंचाई लगभग 12 मीटर है।
बिहार प्रपात: जब दक्षिणी टोंस नदी विन्ध्याचल के पठार को पार करके निकलती है तो बिहार प्रपात का निर्माण होता है। यह लगभग 110 मीटर ऊंचाई पर है।
उपरोक्त उल्लिखित प्रपातों के अतिरिक्त भी भारत में कई जल-प्रपात जल-विद्युत के उत्पादन के प्रमुख स्रोत हैं।
भौम जल
सभी प्रकार का वह जल जो पृथ्वी की ऊपरी सतह (भूपर्पटी) के नीचे स्थित होता है, भूमिगत जल या भौम जल कहलाता है। भौम जल की उपलब्ध मात्रा का 90 प्रतिशत जल उत्तर भारत के मैदानों की अवसादी चट्टानों के निर्माण में सहायक है। यह स्पष्ट करता है कि जहां तक भौम जल के संसाधनों या स्रोतों का मामला है, वहां तक देश का प्रायद्वीपीय भाग सुस्थापित नहीं है। अन्य स्रोतों से प्राप्त जल प्राकृतिक एवं आर्थिक रूप से उतना उपयुक्त और प्रयोग में आने वाला नहीं होता जितना कि भौम जल होता है। सतही जल की आपूर्ति की तुलना में, भूमिगत जल अधिकतर मामलों में नियत संरचना एवं तापमान वाला होता है तथा प्रदूषकों, आवंछित रंगों एवं पेथोजेन्स से मुक्त होता है। इस प्रकार इसमें अल्प शोधन की आवश्यकता होती है।
अधिकतर भौम जल निम्न स्रोतों से प्राप्त किया जाता है:
भारत के भौम जल क्षेत्र: भौमजल के स्रोत मुख्य रूप से तटीय और उत्तरी मैदानों में अवस्थित हैं। जलवायु, रन्ध्रमयता, पारगम्यता (चट्टान में जल की प्रवेश्यता) एवं अन्य जलीय दशाओं के आधार पर भारत की आठ भौम जल प्रदेशों में विभाजित किया गया है।
प्रीकैम्ब्रियन क्रिस्टेलिन प्रदेश: खनिजों की सघनता के कारण प्रीकैम्ब्रियन क्रिस्टेलिन चट्टान भौम जल का अच्छा स्रोत नहीं होती। मात्र दूसरी अवस्था में ही जल की उपलब्धता सुनिश्चित हो जाती है। भारत का आधा क्षेत्र जैसे, तमिलनाडु, कर्नाटक, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश एवं अरावली हिस्से में प्रीकैम्ब्रियन चट्टानें हैं। भौम जल, प्रोकैम्ब्रियन अपक्षयित ग्रेनाइट, नीस, कायांतरित इत्यादि में उपस्थित होता है।
प्रीकैम्ब्रियन अवसादी प्रदेश; यह मुख्य रूप से, चूना पत्थर, बलुआ पत्थर, संपिण्डात्मक शैल एवं शेल के कुडप्पा तथा विंध्यबेसिन तक सीमित है। अन्य स्रोतों की तुलना में बलुआ पत्थर आवश्यक रूप से भौम जल संचय का बेहतर स्रोत है।
गोंडवाना अवसादी प्रदेश: गोंडवाना में कोयला खदानों के साथ-साथ बलुआ पत्थर, ग्रिट्स और शेल की चट्टानें हैं। कई जगहों पर चूना पत्थर और आग्नेय चट्टानें भी दिखाई देती हैं। बलुआ पत्थर अपेक्षाकृत जल का बेहतर स्रोत है। यहां कुएं अक्सर अच्छा परिणाम दिखाते हैं।
दक्कन ट्रेप प्रदेश: दक्कन ट्रेप ज्वालामुखी उद्गार से बना है जो अपने में सभी प्रकार के पहले से अस्तित्व में रहे स्थलाकृतिक विशेषताओं को समेटे हुए है। यह 200,000 वर्ग किमी. क्षेत्र में फैला हुआ है तथा इसकी सघनता (मोटाई) तकरीबन 3,000 मीटर है। यह ज्वालामुखीय चट्टानें कच्छ, काठियावाड़, गुजरात, हैदराबाद, दक्कन और मध्य प्रदेश के बड़े हिस्से में हैं। इसकी मुख्य चट्टान बेसाल्ट है। यहां पर जल संग्रहण में मदद मिलती है क्योंकि बेसाल्ट में रंध्र नहीं होते तथा यह अपारगम्य होती है।
सेनोज़ोइक अवसादी प्रदेश: टर्शियरी बलुआ पत्थर के विस्तार के कारण यह जल का अच्छा स्रोत है तथा मुख्य रूप से आंध्र प्रदेश, केरल, तमिलनाडु तथा गुजरात के तटीय प्रदेश के साथ पाया जाता है।
सेनोज़ोइक भ्रंश बेसिन: नर्मदा, ताप्ती और पोराना के भ्रंश बेसिन अपनी बलुआ, सिल्ट और मिट्टी की मोटी परत के कारण भौम जल का अच्छा स्रोत मुहैया कराता है।
गंगा-ब्रह्मपुत्र कछारी प्रदेश: यह मुख्य रूप से ओडीशा, बंगाल, असम, बिहार, उत्तर प्रदेश तक फैला हुआ है तथा देश का सर्वाधिक समृद्ध भौम जल क्षेत्र है।
हिमालय प्रदेश: अपनी विविध संरचनात्मक एवं भौगोलिक बनावट के कारण, इस क्षेत्र में मुश्किल ही पुनर्भरण होता है तथा इसलिए भौम जल संग्रहण या भंडारण में मध्यवर्ती साबित होती हैं।
भौम जल का विकास: वर्तमान में, 70 प्रतिशत से अधिक जनसंख्या अपनी घरेलू आवश्यकताओं के लिए भौम जल का प्रयोग करती है तथा आधी से अधिक जनसंख्या की इस स्रोत से सिंचाई जरूरतें पूरी होती हैं। देश में भौम जल का विकास एक समान नहीं रहा है: कुछ क्षेत्रों में इसकी कमी है जबकि अन्र्य में इसकी विकास की उच्च गहनता के कारण इसका जरूरत से ज्यादा अवशोषण किया गया। जबकि अधिकतर क्षेत्रों में ताजा भौम जल है, राजस्थान, पंजाब, हरियाणा, तटीय सौराष्ट्र एवं कच्छ तथा पूर्वी तट के शुष्क क्षेत्रों में खारा भौम जल पाया जाता है।
भौम जल स्तर का क्षरण: भारत में स्थायी भौम जल स्रोतों का क्षरण एक जानी-पहचानी समस्या है, विशेष रूप से उन क्षेत्रों में जो कठोर चट्टान वाले हैं या निम्न जलस्तर वाले हैं। भौम जल के बहाव पथ में परिवर्तन से प्रायः साफ-सुथरे जल स्रोत प्रदूषित हो जाते हैं। निम्न कारण भारत में भौम जल स्तर के क्षरण हेतु जिम्मेदार ठहराए जा सकते हैं-
Q .Pani k teen stotra ?
Ans .Nadi ,jhil,Sagar.
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