हमारे देश में गेहूँ की कम पैदावार के अनेक कारण हैं जिनमें से प्रमुख कारण सिंचाई का न होना या गलत समय पर गलत ढंग से सिंचाई करना है। भारत में लगभग 60 प्रतिशत क्षेत्रफल में सिंचित गेहूँ की खेती की जाती है जो भारत के समस्त सिंचित क्षेत्रफल का 24 प्रतिशत है। अधिक उपज लेने के लिए और विशेष रूप से बौनी किस्मों के लिए सिंचाई का विशेष महत्व है क्योंकि बौनी किस्में ज्यादा खाद पानी देने पर भी पुरानी लंबी किस्मों की भांति गिरती नहीं है।
पौधों को उचित वृध्दि व विकास के लिए पानी आवश्यक है। पानी भूमि में पोषक तत्वों को घुलनशील बनाता है तथा पोषक तत्वों के अवशोषण तथा पौधों के हरे हिस्से में उन्हें पहुचानें में सहायक होता है। इसके अतिरिक्त भूमि की तैयारी, लवण निक्षालन तथा पाले से बचाव के लिए भी पानी आवश्यक है। इसलिए जरूरत के अनुसार सिंचाई करना आवश्यक है। इसके विपरीत जहां नहरों का पानी उपलब्ध है वही किसान मिटटी की किस्म पानी की आवश्यकता व मात्रा को ध्यान में रखते हुए खेत में अधिक पानी भर देते है। अधिकतर धान वाली भूमि में (जिनकी जलधारणा क्षमता अधिक होती है) खेत में पानी भरना फसल के लिए हानिकारक होता हैं। छोटा अवस्था में अधिक पानी भरने पर फसल की बढवार रूक जाती है, पौधें पीले पड जाते है और अन्त में सूख जाते है। बालियां निकलने के बाद अधिक पानी भरने से फसल के गिरने व सडनें का भय रहता है। बीच की अवस्थाओं में पानी जमा होने का फसल की बढवार पर प्रतिकूल प्रभाव पडता है। इस प्रकार उचित समय पर उचित मात्रा में सिंचाई करना बहुत ही महत्वपूर्ण है।
गेहूँ की फसल में सिंचाई की संख्या तथा समय जाडों की वर्षा पर निर्भर करता है। फिर भी अच्छी फसल लेने के लिए लगभग 40 से0मी0 पानी की आवश्यकता होती है जो जाडों की वर्षा भूमि में उपलब्ध पानी तथा सिंचाई से पूरी होती है। गेहूँ की इस पूर्ति के लिए साधारणत: लगभग 4-6 सिंचाइयों की आवश्यकता पडती है लकिन रेतीली भूमि में 6-8 सिंचाई की जा सकती है। मटियार भूमि (भारी मिटटी) में 3-4 सिंचाई ही काफी होती है।
गेहूँ की सिंचाई कब की जाय, यह मिटटी में जल की मात्रा, पौधों की जल की आवश्यकता तथा जलवायु पर निर्भर करता है।
मिटटी में उपलब्ध जल पौधों के काम आता है। मिटटी में जल की मात्रा के आधार पर सिंचाई करने के लिए सरल तथा वैज्ञानिक विधियां भी अपनाई जा सकती है। पृष्ठ तानवमापी (टेन्सीयोमीटर) तथा जिप्सम ब्लाक से परोक्ष रूम से भूमि में नमी की मात्रा का पता लगाया जा सकता है। पृष्ठ तनावमापी से इस बात का पता लगता है कि भूमि जल की मिटटी के कणों से कितने बल से जुडा है। यह बल ऋणात्मक बल या तनाव कहलाता है। ज्यों- ज्यों भूमि में पानी की मात्रा घटती है, तनाव बढता है। सतह से 30 से0मी0 गहराई में पृष्ठ तनाव तथा गेहूँ की पैदावार में पारस्परिक सम्बन्ध स्थापित करने में यह पाया गया है। गेहूँ की अधिकतम पैदावार तनाव पृष्ठ के 0.5 'बार' पहुंचने पर सिंचाई करने से मिलती है। इस प्रकार गेहूँ में सिंचाई पृष्ठ तनाव के 0.5 'बार' करनी चाहिए।
कई क्षेत्रों में फसल द्वारा वाष्पीकरण व वाष्पोत्सर्जन क्रिया द्वारा जल का ह्स वहां सूर्य के प्रकाश की मात्रा तापमान, अपेक्षित आर्द्रता तथा जलवायु की गति पर निर्भर करता है। फसल द्वारा उपयोग किये गये जल तथा उस अवधि में वाष्पन के बीच एक खास सम्बन्ध है। परीक्षणों में पाया गया है कि गेहूँ में सिंचाई इस तरह की जानी चाहिए कि सिंचाई द्वारा दिया गया पानी कुल वाष्पन का (उस अवधि में) 90 प्रतिशत हो। इसे यों भी कहा जा सकता है कि 6.0 से0मी0 पानी सिंचाई से तब देना चाहिए जबकि वाष्पन 6.7 से0मी0 हो जाय। गेंहूँ की सभी अवस्थाओं में एक यही आधार लिया जा सकता है। वाष्पन एक सरल व सस्ते उपकरण द्वारा नापा जा सकता है जिसे पैन वाष्पन मापी कहते है। यदि पहली सिंचाई मुख्य जड विकास की प्रारम्भ की अवस्धा में दे दें तो उसके बाद की सिंचाई या वाष्पन के अनुसार सफलतापूर्वक कर सकते है।
गेहूँ के पौधें के जीवन चक्र की कुछ ऐसी अवस्थाएं होती है जिनको हम अच्छी तरह पहचान सकते है और यदि इन अवस्थाओं पर सिंचाई करें तो गेहूँ में पानी का उचित प्रबन्ध हो जाता है। गेहूँ की ऐसी अवस्थाएं निम्नलिखित है जिनमें सिंचाई करनी चाहिए।
अवस्था | बोआई के बाद औसत समय |
मुख्य जड बनाते समय | 20-25 दिन |
कल्लों के विकास के समय | 40-45 दिन |
तने में गाँठ पडते समय | 65-70 दिन |
फूल आते समय | 90-95 दिन |
दानों में दूध पडते समय | 105-110 दिन |
दाना सख्त होते समय | 120-125 दिन |
उचित मात्रा में पानी उपलब्ध होने पर उपयुक्त सभी अवस्थाओं मे सिंचाई करनी चाहिए क्योंकि पौधों की बढवार के लिए प्रत्येक अवस्था में पानी की आवश्यकता पडती है। कुछ ऐसे क्षेत्र होते है जहां पानी पूरी सिंचाई के लिए उपलब्ध नही होता है। ऐसे क्षेत्रों में सिंचाई विशेष अवस्था में करें। परीक्षणों से यह पता चला है कि पौधों के जीवन चक्र मे कुछ ऐसी अवस्थाएं होती है जबकि पानी की कमी के कारण उन्हें सर्वाधिक हानि पहुंचती है। यह अवस्थाएं सिंचाई की दृष्टि से क्रान्तिक अवस्थाएं कहलाती है। गेहूँ की फसल में मुख्य जड के विकास तथा फूल आने का समय सिंचाई की दृष्टि से अत्यधिक महत्वपूर्ण है। इसलिए जिन क्षेत्रों में सिंचाई की सीतित सुविधाएं प्राप्त है, वहां पानी का उपयोग सिंचाई के लिए निम्नलिखित तरीके से करना चाहिए। इस बात को अच्छी तरह ध्यान में रखना चाहिए कि केवल क्रान्तिक अवस्थाओं में ही सिंचाई करने से इष्टतम उपज प्राप्त की जा सकती है।
गेहूँ में सबसे ज्यादा नुकसान मुख्य जड बनते समय सिंचाई न करने से होता है। गेहूँ में विभिन्न क्रांतिक अवस्थाओं पर सिंचाई न करने से पैदावार पर कितना प्रभाव पडता है यह सारणी-1 से स्पष्ट है।
साधारणत: यह देखा गया है कि जिन क्षेत्रों में सिंचाई के लिए रहट आदि का प्रयोग करते है, उनमें पानी की कमी के कारण इतना कम पानी लग पाता है के जडों की पूरी गहराई तक पानी नहीं पहुंच पाता, इसलिए फसल की उपज में भारी कमी हो जाती है। इसके विपरीत नहरी क्षेत्रों में तथा सरकारी नलकूपों द्वारा सिंचाई की सुविधा वाले क्षेत्रों में किसान आवश्यकता से अधिक गहरी सिंचाई करने हैं क्योंकि अगली ंसिंचाई को कब उपलब्ध होगी यह निश्चित नहीं होता। आवश्यकता से अधिक पानी फसल के लिए प्रत्यक्ष रूप् से हानिकारक है तथा पोषक तत्वों को भूमि में जड क्षेत्र से अधिक गहराई में बहा ले जाता है।
बलुई भूमि में कम सिंचाई की आवश्यकता होती है और मटियार में अधिक, क्योंकि बलुई भूमि को पानी रोकने की क्षमता मटियार भूमि की अपेक्षा कम होती है। यदि सिंचाई अधिक उपज के अंतर पर की जाय तो सिंचाई की गहराई अधिक होनी चाहिए। जिन क्षेत्रों में पानी का स्तर भूमि की सतह के समीप हो तो उन क्षेत्रों में कम संख्या में सिंचाई की आवश्यकता होगी क्योंकि बाद की अवस्थाओं में भूमि के इस जल स्तर से कुछ पानी पौधों की जडों का उपलब्ध हो जाता है। औसतन 6 से 7 से0मी0 पानी प्रत्येक सिंचाई में देना चाहिए।
गेहूँ में प्राय: पृष्ठीय सिंचाई की जाती है। इसके लिए निम्नलिखित विधियां अपनाई जाती है:
इस विधि से सिंचाई करने के लिए खेतों की काफी लंबी व कम चौडी पट्टियों में बांट लिया जाता है। यह विधि उन क्षेत्रों के लिए उपयुक्त है जिनमें भूमि की ढाल प्राय: 1.0 प्रतिशत से कम हो तथा पानी का बहाव अधिक हो। यों नकवार सिंचाई के लिए आदर्श ढाल 0.2 से 0.3 प्रतिशत माना गया है। गेहूँ में पटिटयों की चौडाई 8 से 10 मीटर व लंबाई 50 से 200 मीटर तक हो सकती है।
इस विधि से सिंचाई के लिए खेत को छोटी-छोटी आयताकार क्यारियों में बांट लिया जाता है। प्रत्येक क्यारी नाली से जुडी होती है। भूमि का ढाल 1.0 प्रतिशत से अधिक तथा पानी का बहाव कम होने पर इसका प्रयोग होता है।
Gehun ka Kranti Chowk ka Vitran Karen
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गेहूँ मैं सिचाई की क्रन्तिक अवस्थाये कोन कोन सी है
गेहूं की महत्वपूर्ण कांति आवस्p
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गेहूं में सिंचाई की सबसे महत्वपूर्ण क्रांतिक अवस्था है