राजस्थान का इतिहास जानने का साधन शिलालेख


Rajesh Kumar at  2018-08-27  at 11:55:03
Rajasthan ke shilalekh abhilekh aur prashastiyaan
Rajasthan ke shilalekh abhilekh aur prashastiyaan

पुरातत्व स्रोतों के अंतर्गत अन्य महत्त्वपूर्ण स्रोत अभिलेख हैं। इसका मुख्य कारण उनका तिथियुक्त एवं समसामयिक होना है। ये साधारणतः पाषाण पट्टिकाओं, स्तंभों, शिलाओं ताम्रपत्रों, मूर्तियों आदि पर खुदे हुए मिलते हैं। इनमें वंशावली, तिथियों, विजयों, दान, उपाधियों, नागरिकों द्वारा किए गए निर्माण कार्यों, वीर पुरुषों का योगदान, सतियों की महिमा आदि की मिलती है। प्रारंभिक शिलालेखों की भाषा संस्कृत है जबकि मध्यकालीन शिलालेखों की भाषा संस्कृत, फारसी, उर्दू, राजस्थानी आदि है। जिन शिलालेखों में किसी शासक की उपलब्धियों की यशोगाथा होती है, उसे ‘प्रशस्ति’ भी कहते हैं। महाराणा कुम्भा द्वारा निर्मित कीर्ति स्तम्भ की प्रशस्ति तथा महाराणा राजसिंह की राज प्रशस्ति विशेष महत्त्वपूर्ण मानी जाती है। शिलालेखों में वर्णित घटनाओं के आधार पर हमें तिथिक्रम निर्धारित करने में सहायता मिलती है। बहुत से शिलालेख राजस्थान के विभिन्न शासकों और दिल्ली के सुलतान तथा मुगल सम्राट के राजनीतिक तथा सांस्कृतिक संबंधों पर प्रकाश डालते हैं। शिलालेखों की जानकारी सामान्यतः विश्वसनीय होती है परंतु यदा-कदा उनमें अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन भी पाया जाता है, जिनकी पुष्टि अन्य साधनों से करना आवश्यक हो जाता है। यहाँ राजस्थान के कुछ चुने हुए प्रमुख शिलालेखों का वर्णन आगे किया गया है। आशा है ये आपके लिए उपयोगी होगा-


संस्कृत शिलालेख


घोसुण्डी शिलालेख (द्वितीय शताब्दी ईसा पूर्व) -

यह लेख कई शिलाखण्डों में टूटा हुआ है। इसके कुछ टुकड़े ही उपलब्ध हो सके हैं। इसमें एक बड़ा खण्ड उदयपुर संग्रहालय में सुरक्षित है। यह लेख घोसुण्डी गाँव (नगरी, चितौड) से प्राप्त हुआ था। इस लेख में प्रयुक्त की गई भाषा संस्कृत और लिपि ब्राह्मी है। प्रस्तुत लेख में संकर्शण और वासुदेव के पूजागृह के चारों ओर पत्थर की चारदीवारी बनाने और गजवंश के सर्वतात द्वारा अश्वमेघ यज्ञ करने का उल्लेख है। इस लेख का महत्त्व द्वितीय शताब्दी ईसा पूर्व में भागवत धर्म का प्रचार, संकर्शण तथा वासुदेव की मान्यता और अश्वमेघ यज्ञ के प्रचलन आदि में है।


मानमोरी अभिलेख (713 ई.) -




यह लेख चित्तौड़ के पास मानसरोवर झील के तट से कर्नल टॉड को मिला था। चित्तौड़ की प्राचीन स्थिति एवं मोरी वंश के इतिहास के लिए यह अभिलेख उपयोगी है। इस लेख से यह भी ज्ञात होता है कि धार्मिक भावना से अनुप्राणित होकर मानसरोवर झील का निर्माण करवाया गया था।


सारणेश्वर प्रशस्ति (953 ई.) -


उदयपुर के श्मशान के सारणेश्वर नामक शिवालय पर स्थित इस प्रशस्ति से वराह मंदिर की व्यवस्था, स्थानीय व्यापार, कर, शासकीय पदाधिकारियों आदि के विषय में पता चलता है। गोपीनाथ शर्मा की मान्यता है कि मूलतः यह प्रशस्ति उदयपुर के आहड़ गाँव के किसी वराह मंदिर में लगी होगी। बाद में इसे वहाँ से हटाकर वर्तमान सारणेश्वर मंदिर के निर्माण के समय में सभा मंडप के छबने के काम में ले ली हो।


बिजौलिया अभिलेख (1170 ई.) -




यह लेख बिजौलिया कस्बे के पार्श्वनाथ मंदिर परिसर की एक बड़ी चट्टान पर उत्कीर्ण है। लेख संस्कृत भाषा में है और इसमें 93 पद्य हैं। यह अभिलेख चौहानों का इतिहास जानने का महत्त्वपूर्ण साधन है। इस अभिलेख में उल्लेखित "विप्र: श्रीवत्सगोत्रेभूत" के आधार पर डॉ. दशरथ शर्मा ने चौहानों को वत्स गोत्र का ब्राह्मण कहा है। इस अभिलेख से तत्कालीन कृषि धर्म तथा शिक्षा सम्बन्धी व्यवस्था पर भी प्रकाश पड़ता है। लेख के द्वारा हमें कई स्थानों के प्राचीन नामों की जानकारी मिलती है जैसे- जाबालिपुर (जालौर), शाकम्भरी (साभंर), श्रीमाल (भीनमाल) आदि।


चीरवे का शिलालेख (1273 ई.) -




चीरवा (उदयपुर) गाँव के एक मंदिर से प्राप्त संस्कृत में 51 श्लोक के इस शिलालेख से मेवाड के प्रारम्भिक गुहिलवशं के शासकों, चीरवा गाँव की स्थिति, विष्णु मंदिर की स्थापना शिव मंदिर के लिए भूमिदान आदि का ज्ञान होता है। इस लेख द्वारा हमे प्रशस्तिकार रत्नप्रभसूरी , लेखक पार्श्वचन्द्र तथा शिल्पी देलहण का बोध होता है जो उस युग के साहित्यकार तथा कलाकारों की परंपरा में थे। लेख से गोचर भूमि, पाशुपत शैव धर्म आदि पर प्रकाश पडता है।

रणकपुर प्रशस्ति (1439 ई.)-




रणकपुर के जैन चौमुखा मंदिर से लगे इस प्रशस्ति में मेवाड़ के शासक बापा से कुम्भा तक वंशावली है। इसमें महाराणा कुम्भा की विजयों का वर्णन है। इस लेख में नाणक शब्द का प्रयोग मुद्रा के लिए किया गया है । स्थानीय भाषा में आज भी नाणा शब्द मुद्रा के लिए प्रयुक्त होता है। इस प्रशस्ति में मंदिर के सूत्रधार दीपा का उल्लेख है।

कीर्ति स्तम्भ प्रशस्ति (1460 ई.) -




संभवतः चितौडगढ़ के कीर्ति स्तम्भ की अंतिम मंजिल की ताकों पर लगाई गई थी। किन्तु अब केवल दो शिलाएँ ही उपलब्ध हैं, जिन पर प्रशस्ति है। हो सकता है कि कीर्ति स्तम्भ पर पडने वाली बिजली के कारण ये शिलाएँ टूट गयी हों। वर्तमान में 1 से 28 तथा 162 से 187 श्लोक ही उपलब्ध हैं। इनमें बापा, हम्मीर, कुम्भा आदि शासकों का वर्णन विस्तार से मिलता है। इससे कुम्भा के व्यक्तिगत गुणों पर प्रकाश पडता है और उसे दानगुरु, शैलगुरु आदि विरुदों से संबोधित किया गया है। इससे हमें कुंभा द्वारा रचित ग्रंथों का ज्ञान होता है जिनमें चंडीशतक, गीतगोविन्द की टीका, संगीतराज आदि मुख्य है। कुम्भा द्वारा मालवा और गुजरात की सम्मिलित सेनाओं को हराना प्रशस्ति 179 वें श्लोक में वर्णित है। इस प्रशस्ति के रचियता अत्रि और महेश थे।

रायसिंह की प्रशस्ति (1594 ई.)-




बीकानेर दुर्ग के द्वार के एक पार्श्व में लगी यह प्रशस्ति बीकानेर नरेश रायसिंह के समय की है। इस प्रशस्ति में बीकानेर के संस्थापक राव बीका से रायसिंह तक के बीकानेर के शासकों की उपलब्धियों का जिक्र है। इस प्रशस्ति से रायसिंह की मुगलों की सेवा के अंतर्गत प्राप्त उपलब्धियों पर प्रकाश पडता है। इसमें उसकी काबुल, सिंध, कच्छ पर विजयों का वर्णन किया गया है। इस प्रशस्ति से गढ़ निर्माण के कार्य के संपादन का ज्ञान होता है। इस प्रशस्ति में रायसिंह के धार्मिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियों का उल्लेख है। इस प्रशस्ति का रचयिता जाता नामक एक जैन मुनि था। यह संस्कृत भाषा में है।

आमेर का लेख (1612 ई.)-




आमेर के कछवाह वंश के इतिहास के निर्माण में यह लेख महत्त्वपूर्ण है। इसमें कछवाह शासकों को रघुवंशतिलक कहा गया है। इसमें पृथ्वीराज, भारमल, भगवंतदास और मानसिंह का उल्लेख है। इस लेख में मानसिंह को भगवंतदास का पुत्र बताया गया है। मानसिंह द्वारा जमुआ रामगढ़ के दुर्ग के निर्माण का उल्लेख है। लेख संस्कृत एवं नागरी लिपि में है।

जगन्नाथराय का शिलालेख (1652 ई.)-




उदयपुर के जगन्नाथराय मंदिर के सभा मंडप के प्रवेश द्वार पर यह शिलालेख उत्कीर्ण है। यह शिलालेख मेवाड के इतिहास के लिए उपयोगी है। इसमें बापा से महाराणा जगतसिंह तक के शासकों की उपलब्धियों का उल्लेख है। इसमें हल्दीघाटी युद्ध, महाराणा जगतसिंह के समय में उसके द्वारा किये जाने वाले दान-पुण्य का वर्णन आदि किया गया है। इसका रचयिता तैलंग ब्राह्मण कृष्णभट्ट तथा मंदिर का सूत्रधार भाणा तथा उसका पुत्र मुकुन्द था।

राजप्रशस्ति (1676 ई)-




उदयपुर संभाग के राजनगर में राजसमुद्र (राजसमंद) की नौचौकी नामक बाँध पर सीढ़ियों के पास वाली ताको पर 25 बड़ी शिलाओं पर उत्कीर्ण ‘राजप्रशस्ति महाकाव्य’ देश का सबसे बड़ा शिलालेख है। इसकी रचना बाँध तैयार होने के समय रायसिंह (राजसिंह) के काल में हुई। इसका रचनाकार रणछोड़ भट्ट था। यह प्रशस्ति संस्कृत भाषा में है, परंतु अंत में कुछ पंक्तियाँ हिंदी भाषा में है। इसमे तालाब के काम के लिए नियुक्त निरीक्षकों एवं मुख्य शिल्पियों के नाम है। इसमे तिथियों तथा ऐतिहासिक घटनाओं का सटीक वर्णन है। इसमें वर्णित मेवाड़ के प्रारम्भिक में उल्लेखित है कि राजसमुद्र के बाँध को बनवाने के कार्य अकाल पीड़ितों की सहायता के लिए किया गया था। महाराणा राजसिंह की उपलब्धियों की जानकारी के लिए यह प्रशस्ति अत्यंत उपयोगी है। इस प्रशस्ति से यह भी ज्ञात होता है कि राजसमुद्र तालाब की प्रतिष्ठा के अवसर पर 46,000 ब्राह्मण तथा अन्य लोग आए थे। तालाब बनवाने में महाराणा ने 1,05,07,608 रुपये व्यय किए थे। यह प्रशस्ति 17वीं शताब्दी के मेवाड़ के सामाजिक, धार्मिक और आर्थिक जीवन को जानने के लिए उपयोगी है।

फारसी शिलालेख -




भारत में मुस्लिम राज्य की स्थापना के पश्चात् फारसी भाषा के लेख भी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होते हैं। ये लेख मस्जिदों, दरगाहों, कब्रों, सरायों, तालाबों के घाटों, पत्थर आदि पर उत्कीर्ण करके लगाए गए थे। राजस्थान के मध्यकालीन इतिहास के निर्माण में इन लेखों से महत्त्वपूर्ण सहायता मिलती है। इनके माध्यम से हम राजपूत शासकों और दिल्ली के सुलतान तथा मुगल शासकों के मध्य लड़े गए युद्धों, राजस्थान के विभिन्न क्षेत्रों पर समय-समय पर होने वाले मुस्लिम आक्रमण, राजनीतिक संबंधों आदि का मूल्यांकन कर सकते हैं। इस प्रकार के लेख सांभर, नागौर, मेड़ता, जालौर, सांचोर, जयपुर, अलवर, टोंक, कोटा आदि क्षेत्रों में अधिक पाए गए हैं। फारसी भाषा में लिखा सबसे पुराना लेख अजमेर के ढ़ाई दिन के झोंपड़े के गुम्बज की दीवार के पीछे लगा हुआ मिला है। यह लेख 1200 ई. का है और इसमें उन व्यक्तियों के नामों का उल्लेख है जिनके निर्देशन में संस्कृत पाठशाला तोड़कर मस्जिद का निर्माण करवाया गया। चित्तौड़ की गैबी पीर की दरगाह से 1325 ई. का फारसी लेख मिला है जिससे ज्ञात होता है कि अलाउद्दीन खिलजी ने चित्तौड़ का नाम खिज्राबाद कर दिया था। जालौर और नागौर से जो फारसी लेख में मिले हैं, उनसे इस क्षेत्र पर लम्बे समय तक मुस्लिम प्रभुत्व की जानकारी मिलती है। पुष्कर के जहाँगीर महल के लेख (1615 ई.) से राणा अमरसिंह पर जहाँगीर की विजय की जानकारी मिलती है। इस घटना की पुष्टि 1637 ई. के शाहजहानी मस्जिद, अजमेर के लेख से भी होती है।


स्रोत- राजस्थान का इतिहास प्रारंभ से 1206 ई . तक ) वर्धमान महावीर खुला विश्वविद्यालय, कोटा
र्णन किया गया है। इस प्रशस्ति से गढ़ निर्माण के कार्य के संपादन का ज्ञान होता है। इस प्रशस्ति में रायसिंह के धार्मिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियों का उल्लेख है। इस प्रशस्ति का रचयिता जाता नामक एक जैन मुनि था। यह संस्कृत भाषा में है। आमेर का लेख (1612 ई.)- आमेर के कछवाह वंश के इतिहास के निर्माण में यह लेख महत्त्वपूर्ण है। इसमें कछवाह शासकों को रघुवंशतिलक कहा गया है। इसमें पृथ्वीराज, भारमल, भगवंतदास और मानसिंह का उल्लेख है। इस लेख में मानसिंह को भगवंतदास का पुत्र बताया गया है। मानसिंह द्वारा जमुआ रामगढ़ के दुर्ग के निर्माण का उल्लेख है। लेख संस्कृत एवं नागरी लिपि में है। जगन्नाथराय का शिलालेख (1652 ई.)- उदयपुर के जगन्नाथराय मंदिर के सभा मंडप के प्रवेश द्वार पर यह शिलालेख उत्कीर्ण है। यह शिलालेख मेवाड के इतिहास के लिए उपयोगी है। इसमें बापा से महाराणा जगतसिंह तक के शासकों की उपलब्धियों का उल्लेख है। इसमें हल्दीघाटी युद्ध, महाराणा जगतसिंह के समय में उसके द्वारा किये जाने वाले दान-पुण्य का वर्णन आदि किया गया है। इसका रचयिता तैलंग ब्राह्मण कृष्णभट्ट तथा मंदिर का सूत्रधार भाणा तथा उसका पुत्र मुकुन्द था। राजप्रशस्ति (1676 ई)- उदयपुर संभाग के राजनगर में राजसमुद्र (राजसमंद) की नौचौकी नामक बाँध पर सीढ़ियों के पास वाली ताको पर 25 बड़ी शिलाओं पर उत्कीर्ण ‘राजप्रशस्ति महाकाव्य’ देश का सबसे बड़ा शिलालेख है। इसकी रचना बाँध तैयार होने के समय रायसिंह (राजसिंह) के काल में हुई। इसका रचनाकार रणछोड़ भट्ट था। यह प्रशस्ति संस्कृत भाषा में है, परंतु अंत में कुछ पंक्तियाँ हिंदी भाषा में है। इसमे तालाब के काम के लिए नियुक्त निरीक्षकों एवं मुख्य शिल्पियों के नाम है। इसमे तिथियों तथा ऐतिहासिक घटनाओं का सटीक वर्णन है। इसमें वर्णित मेवाड़ के प्रारम्भिक में उल्लेखित है कि राजसमुद्र के बाँध को बनवाने के कार्य अकाल पीड़ितों की सहायता के लिए किया गया था। महाराणा राजसिंह की उपलब्धियों की जानकारी के लिए यह प्रशस्ति अत्यंत उपयोगी है। इस प्रशस्ति से यह भी ज्ञात होता है कि राजसमुद्र तालाब की प्रतिष्ठा के अवसर पर 46,000 ब्राह्मण तथा अन्य लोग आए थे। तालाब बनवाने में महाराणा ने 1,05,07,608 रुपये व्यय किए थे। यह प्रशस्ति 17वीं शताब्दी के मेवाड़ के सामाजिक, धार्मिक और आर्थिक जीवन को जानने के लिए उपयोगी है। फारसी शिलालेख - भारत में मुस्लिम राज्य की स्थापना के पश्चात् फारसी भाषा के लेख भी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होते हैं। ये लेख मस्जिदों, दरगाहों, कब्रों, सरायों, तालाबों के घाटों, पत्थर आदि पर उत्कीर्ण करके लगाए गए थे। राजस्थान के मध्यकालीन इतिहास के निर्माण में इन लेखों से महत्त्वपूर्ण सहायता मिलती है। इनके माध्यम से हम राजपूत शासकों और दिल्ली के सुलतान तथा मुगल शासकों के मध्य लड़े गए युद्धों, राजस्थान के विभिन्न क्षेत्रों पर समय-समय पर होने वाले मुस्लिम आक्रमण, राजनीतिक संबंधों आदि का मूल्यांकन कर सकते हैं। इस प्रकार के लेख सांभर, नागौर, मेड़ता, जालौर, सांचोर, जयपुर, अलवर, टोंक, कोटा आदि क्षेत्रों में अधिक पाए गए हैं। फारसी भाषा में लिखा सबसे पुराना लेख अजमेर के ढ़ाई दिन के झोंपड़े के गुम्बज की दीवार के पीछे लगा हुआ मिला है। यह लेख 1200 ई. का है और इसमें उन व्यक्तियों के नामों का उल्लेख है जिनके निर्देशन में संस्कृत पाठशाला तोड़कर मस्जिद का निर्माण करवाया गया। चित्तौड़ की गैबी पीर की दरगाह से 1325 ई. का फारसी लेख मिला है जिससे ज्ञात होता है कि अलाउद्दीन खिलजी ने चित्तौड़ का नाम खिज्राबाद कर दिया था। जालौर और नागौर से जो फारसी लेख में मिले हैं, उनसे इस क्षेत्र पर लम्बे समय तक मुस्लिम प्रभुत्व की जानकारी मिलती है। पुष्कर के जहाँगीर महल के लेख (1615 ई.) से राणा अमरसिंह पर जहाँगीर की विजय की जानकारी मिलती है। इस घटना की पुष्टि 1637 ई. के शाहजहानी मस्जिद, अजमेर के लेख से भी होती है। स्रोत- राजस्थान का इतिहास (प्रारंभ से 1206 ई. तक) वर्धमान महावीर खुला विश्वविद्यालय, कोटा


Rajasthan Ka Itihas Janane Sadhan Shilalekh Abhilekh Prashashtiyan Puratatv Stroton Ke Antargat Anya Mahatvapurnn Strot Hain । Iska Mukhya Karan Unka Tithiyukt Aivam SamSamayik Hona Hai Ye Sadharanntah Pashann Pattikaon, Stanbhon Shilaon TamraPatron Murtiyon Aadi Par Khude Hue Milte Inme Vanshavali Tithiyon Vijayon Dan Upadhiyon Nagrikon Dwara Kiye Gaye Nirmann Karyon Veer Purushon Yogdan Satiyon Ki Mahima Milti Praranbhik Shilalekhon Bhasha Sanskrit Jabki Madhyakaleen Farsi Urdoo Rajasthani Jin Me Kisi Shashak Uplabdhiyon Yashogatha Hoti Use Prashashti Bhi Kehte Maharanna Kumbha Nirmit Kirti Stambh Tatha Rajsingh Raj Vishesh Mani Jati Varnnit Ghatnaon Aadhaar Hamein TithiKram Nirdharit Karne Sahayta Bahut Se Vibhinn Shasako Aur Delhi Sultan Mugal Samrat RajNeetik Sanskritik Sambandhon Prakash Daalte Jankari Samanyat Vishvasaniya Parantu Yada - Kada Unme अतिशयोक्तिपूर्ण Varnnan Paya Jata Jinki Pushti Sadhno Karna Awashyak Ho Yahan Kuch Chune Pramukh Aage Kiya Gaya Aasha Apke Liye Upyog

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